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१६२ : जैनदर्शन में आत्म-विचार
उपर्युक्त विवेचन से हम इस निष्कर्ष पर पहुंचते हैं कि गति आदि मार्गणाओं के द्वारा समस्त जीव-राशि का परिज्ञान कर सकते हैं और इस दिशा में जैन दार्शनिकों की यह भी अपूर्व उपलब्धि कही जानी चाहिए । (घ) आत्मा के भेद और उनका विश्लेषण :
जैन दार्शनिकों ने आत्मा के भेद अनेक दृष्टियों से किये हैं। आत्मा के वर्गीकरण को जितनी विभिन्नता जैनदर्शन में दृष्टिगोचर होती है, उतनी अन्य किसी दर्शन में नहीं। आचार्य कुन्दकुन्द, अमृतचन्द्रसूरि, शुभचन्द्राचार्य आदि जैन विद्वानों ने आत्मा के सामान्य की अपेक्षा से एक भेद और विस्तार की अपेक्षा से दस भेदों का उल्लेख किया है।' आत्मा के मूलतः दो भेद : संसारी और मुक्त अथवा अशुद्ध और शुद्ध :
उमास्वामी ने तत्त्वार्थसूत्र में आत्मा के मूलतः दो भेद किये हैं : संसारी और मुक्त । इन्हें क्रमशः अशुद्ध-शुद्ध, समल-विमल भी कहते हैं । भगवती-सूत्र' (व्याख्याप्रज्ञप्ति) और जीवाजीवाभिगम सूत्र में संसारी आत्मा को संसारसमापन्नक और मुक्तात्मा को असंसार-समापन्नक कहा है । जो आत्माएँ कर्मसंयुक्त हैं और द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव और भव परिवर्तन से युक्त होकर अनेक योनियों और गतियों में संसरण अर्थात् परिभ्रमण करती रहती हैं, वे संसारी आत्माएँ कहलाती हैं । संसारी आत्माएँ सशरीरी होती हैं। ये आत्माएँ नित्य नवीन कर्म बांधकर विभिन्न पर्यायों में फल भोगती हैं । नेमिचन्द्राचार्य सिद्धान्त
१. (क) एको चेव महप्पा सो दुवियप्पो त्ति लक्खणो होदि ।
चदु चंकमणो भणिदो पंचग्गगुणप्पधाणो य ।। छक्कापक्कमजुत्तो उवउत्तो सत्तभङ्गसब्भावो । अट्ठासओ णवत्थो जीवो दसट्ठाणगो भणिदो ।।
-पंचास्तिकाय, गा० ७१-७२ । (ख) तत्त्वार्थसार, २१३३४-३४७ ।
(ग) ज्ञानार्णव, ६।१८। २. संसारिणो मुक्ताश्च, -तत्त्वार्थसूत्र, २।१० । ३. अध्यात्मकमलमार्तण्ड, ३।९। ४. भगवतीसूत्र, ११११२४ । ५. जीवाजीवाभिगमसूत्र, १७ । ६. संसरणं संसारः-एषामस्ति ते संसारिणः, -सर्वार्थसिद्धि, २०१०, पृ०
११६, २।१०।
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