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आत्म-स्वरूप-विमर्श : १६१
सम्यग्मिथ्यादृष्टि : जीवादि सत्त्वों में श्रद्धा एवं अश्रद्धा रखना सम्यग्मिथ्यात्व है।' यह चतुर्थ गणस्थान में पाया जाता है।
मिथ्यादृष्टि : मिथ्यात्व दर्शनमोहनीय कर्म के उदय से आप्त-प्रणीत पदार्थों में श्रद्धा न रखना मिथ्यादृष्टि है।२ मिथ्यादृष्टि जीव प्रथम गुणस्थानवर्ती होता है।
__ आगमों में सम्यक्त्व-मार्गणा के प्रसङ्ग में जीवों की संख्या का प्रमाण विस्तार से किया गया है ।
संज्ञी-मार्गणा : मन को संज्ञा कहते हैं। इसका कारण नो-इन्द्रिय आवरण कर्म का क्षयोपशम होना है। जिन जीवों में मन के सद्भाव के कारण शिक्षा, उपदेश ग्रहण करने, विचार, तर्क तथा हिताहित का निर्णय करने की शक्ति विशेष होती है, उसे संज्ञी और इस प्रकार की शक्ति से रहित जीवों को असंज्ञी कहते हैं ।३ संज्ञी जीवों के प्रथम गुणस्थान से क्षीण कषायपर्यन्त बारह गुणस्थान और असंज्ञी जीव के प्रथम गुणस्थान ही होता है । गति की अपेक्षा एकेन्द्रिय से चतुरिन्द्रिय जीव तथा कुछ पंचेन्द्रिय तिर्यंच असंज्ञी ही होते हैं और शेष पंचेन्द्रिय तिर्यञ्च, देव, मनुष्य और नारकी संज्ञी होते हैं । __ आहार-मार्गणा : शरीर, मन और वचन बनने के योग्य नो-कर्मवर्गणा के ग्रहण करने को आचार्य नेमिचन्द्र ने आहार कहा है। इसके लिए शरीर नामकर्म का उदय होना अनिवार्य है। जो जीव इस प्रकार का आहार ग्रहण करते हैं, उन्हें आहारक कहते हैं और इसके विपरीत अनाहारक कहलाते हैं।" गोम्मटसार (जीवकाण्ड) में विग्रहगतिवर्ती जीव, सयोग और अयोगकेवली एवं समस्त सिद्धों को अनाहारक तथा शेष को आहारक जीव कहा है।
उपयोग प्ररूपणा : उपयोग प्ररूपणा का अन्तर्भाव ज्ञान और दर्शन मार्गणा में हो जाता है । इसलिए यहाँ उसका अलग से विवेचन नहीं किया गया है ।
१. गोम्मटसार (जीवकाण्ड), गा० ६५५ । २. वही, गा० ६५६ । ३. वही, गा० ६६०-६६२ । ४. द्रव्यसंग्रह, टीका, १२।३० । ५. आहरदि सरीराणं तिण्हं एयदरवग्गणाओ य ।
भासामणाण णियदं तम्हा आहारयो भणिदो ।। गोम्मटसार (जीवकाण्ड),
गा० ६६५, ६६४।। ६. विग्गहगदिमावण्णा केवलिणो, समुग्घदो अजोगी य ।
सिद्धा य अणाहारा, सेसा आहारया जीवा ॥-वही, गा० ६६६ ।
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