________________
१६० : जैनदर्शन में आत्म-विचार
क्षायिक सम्यक्त्व का स्वामी असंयत से अयोग-केवली गुणस्थानवी जीवों को बतलाया है।
वेदक-सम्यक्त्व : वेदक-सम्यक्त्व का स्वरूप बतलाते हुए नेमिचन्द्राचार्य ने कहा है कि सम्यक्त्व मोहनीय प्रकृति के उदय से पदार्थों का चल२, मलिन और अगाढ़ रूप श्रद्धान होना वेदक-सम्यक्त्व है ।" सम्यक्त्व प्रकृति का वेदन करने वाले जीव को वेदक सम्यग्दृष्टि कहते हैं । इसकी बुद्धि सुखानुबंधी होती है। शुचि कर्म में रति उत्पन्न हो जाती है। वेदक-सम्यक्त्व के कारण धर्म में अनुराग और संसार से निर्वेद, श्रुत में संवेग एवं तत्त्वार्थों में श्रद्धा उत्पन्न हो जाती है।
उपशम-सम्यक्त्व : सम्यक्त्व, मिथ्यात्व और सम्यग्मिथ्यात्व तथा अनन्तानुबंधी क्रोधादि सात प्रकृतियों के उपशम से जीव के उपशम-सम्यक्त्व होता है । जिस प्रकार कीचड़ युक्त पानी में फिटकरी डालने से कीचड़ नीचे बैठ जाता है और ऊपर निर्मल जल हो जाता है, उसी प्रकार दर्शन मोहनीय के उपशान्त होने से पदार्थों में निर्मल श्रद्धान उत्पन्न हो जाता है। इसके दो भेद हैं-प्रथमोपशम सम्यक्त्व एवं द्वितीयोपशम सम्यक्त्व। यह सम्यक्त्व सातवें से ग्यारहवें गुणस्थानवी जीव के होता है।
सासादन-सम्यक्त्व : सम्यक्त्व से भ्रष्ट लेकिन मिथ्यात्व को अप्राप्त जीव को सासादन-सम्यक्त्व होता है। इसमें सम्यग्दर्शन अव्यक्त रहता है । सासादनसम्यक्त्व द्वितीय गुणस्थान में होता है ।
१. षट्खण्डागम, १।१।१।१४५ । २. किसी विशेष तीर्थङ्कर में किसी विशेष शक्ति का होना मानना । ३. जिस सम्यग्दर्शन में पूर्ण निर्मलता न हो । ४. सम्यग्दर्शन के होते हुए भी अपने द्वारा बनवाये गये मन्दिर में 'यह मेरा
मन्दिर है' दूसरे के बनवाये मन्दिर में 'यह दूसरे का मन्दिर' इस प्रकार
का भ्रम रखना, तत्त्वार्थ-ग्रहण में शिथिल होना। ५. गोम्मटसार (जीवकाण्ड), गा० २५, ६४९; धवला, १।११।१२ । ६. पंचसंग्रह (प्राकृत), १११६३-६४ । ७. सर्वार्थसिद्धि, २।३, पंचसंग्रह (प्राकृत), १११६५-६६ । ८. षट्खण्डागम, १११।१।१४७ । ९. गोम्मटसार (जीवकाण्ड), गा० ६५४ ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org