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________________ आत्म-स्वरूप-विमर्श : १५९ भव्य मार्गणा : भव्य-मार्गणा के अनुसार आत्मा के दो भेद हैं-भव्य और अभव्य ।' मुक्त होने की योग्यता रखने वाले जीव भव्य और ऐसी योग्यता से रहित जीव अभव्य कहलाते हैं । इनके अतिरिक्त अतीत भव्य भी होते हैं । नेमिचन्द्राचार्य ने कहा है कि जो न भव्य हैं और न अभव्य हैं और जो मुक्त हो गये हैं तथा जिन्होंने ज्ञानादि अनन्त चतुष्ट य को प्राप्त कर लिया है, उन्हें अतीत भव्य कहते हैं ।३ सम्यक्त्व मार्गणा : उमास्वामी ने तत्त्वार्थसूत्र में जीव, अजीव, आस्रव, बंध, संवर, निर्जरा और मोक्ष-इन सात तत्त्वों का जैसा स्वरूप है, उनका उसी प्रकार से दुरभिनिवेश रहित श्रद्धान करने को सम्यक्त्व कहा है । कुन्दकुन्दाचार्य ने भूतार्थ नय से ज्ञात जीव, अजीव, पुण्य, पाप, आस्रव, संवर, निर्जरा, बंध और मोक्ष को सम्यक्त्व कहा है। संक्षेप में शुद्धात्मा की उपादेयता ही सम्यक्त्व का प्रयोजन है। अकलंकदेव ने सम्यक्त्व को आत्मा का परिणाम कहा है । किन्हीं पुरुषों को स्वभाव से और किन्हीं को उपदेशादि के निमित्त से सम्यक्त्व प्राप्त होता है। सम्यक्त्व-मार्गणा के भेद : षट्खंडागम में सामान्य की अपेक्षा से एक भेद और विशेष की अपेक्षा से इसके निम्नांकित भेदों का उल्लेख किया गया है१. क्षायिक-सम्यग्दृष्टि, २. वेदक-सम्यग्दृष्टि, ३. उपशम-सम्यग्दृष्टि, ४. सासादन-सम्यग्दृष्टि, ५. सम्यग्मिथ्यादृष्टि और ६. मिथ्यादृष्टि । क्षायिक-सम्यग्दृष्टि : दर्शन मोहनीय कर्म के क्षय होने पर प्रकट होने वाला निर्मल श्रद्धान क्षायिक सम्यक्त्व कहलाता है। यह सम्यक्त्व कभी नष्ट नहीं होता है। क्षायिक सम्यग्दृष्टि जीव सभी स्थितियों में उदासीन रहता है। क्षायिक सम्यग्दृष्टि जीव के सम्बन्ध में आचार्य नेमिचन्द्र ने कहा है कि दर्शनावरणीय कर्म का क्षय कर्म भूमिज मनुष्य ही करता है, लेकिन उसकी समाप्ति किसी भी गति में हो सकती है। षट्खंडागम में गुणस्थान की अपेक्षा १. षट्खण्डागम, ११११११४१ । २. गोम्मटसार (जीवकाण्ड), गा० ५५७-५८। ३. वही, गा० ५५९ । विस्तृत विवेचन इसी अध्याय में आगे देखें । ४. तत्त्वार्थसुत्र : ११२ और भी देखें ११४ । ५. षट्खण्डागम, १।१।१।१४४ ।। ६. गोम्मटसार (जीवकाण्ड), ५४६; धवला, १११।१।१२; सर्वार्थसिद्धि, २।४ । ७. गोम्मटसार (जीवकाण्ड), जोवतत्त्वप्रदीपिका, गा० ५५० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002140
Book TitleJain Dharma me Atmavichar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLalchand Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1984
Total Pages336
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Soul, & Spiritual
File Size13 MB
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