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________________ १५८ : जैनदर्शन में आत्म-विचार __भावलेश्या : कषाय से अनुरंजित मन, वचन और काय को प्रवृत्ति को पूज्यपाद आदि आचार्यों ने भावलेश्या कहा है। केवल कषाय या योग मात्र लेश्या नहीं है, अपितु इन दोनों के जोड़ का नाम लेश्या है ।२ भावलेश्या के भी छह भेद आगम में कहे गये हैं-कृष्ण, नील, कापोत, पीत, पद्म और शक्ल । आदि की तीन लेश्याएँ अशुभ और अन्त की तीन लेश्याएँ शुभ होती हैं । भावलेश्या आत्मा के परिणामों के अनुसार बदलती रहती है। लेश्या-मार्गणा की अपेक्षा आत्मा के भेद : __ षट्खंडागम में कहा है कि लेश्या-मार्गणा के अनुसार जीव कृष्ण-लेश्या, नील-लेश्या, कापोत-लेश्या, पीत-लेश्या, पद्म-लेश्या और शुक्ल-लेश्या तथा अलेश्या वाले होते हैं। तिलोयपण्णत्ति और गोम्मटसार (जीवकाण्ड) में इन लेश्याओं का विस्तृत स्वरूप बतलाया गया है । कृष्ण-लेश्या वाले जीव क्रोधी, नास्तिक, दुष्ट, विषयों में लिप्त, मानी, मायावी, भीरु और आलसी होते हैं। नील लेश्या वाले जीव निद्राल, ठग, परिग्रही, विवेक-बुद्धि विहीन, कायर, तृष्णा युक्त, चपल तथा अतिलोभी होते हैं । कापोत लेश्या वाले जीव मात्सर्य, पैशुन्य, शोक एवं भय से युक्त, आत्म-प्रशंसक तथा प्रशंसक को धन देने वाले होते हैं। पीत लेश्या वाले जीव दृढ़-निश्चयो, मित्र, दयालु, सत्यवादी, दानशील, विवेकवान, मृदु-स्वभावी तथा ज्ञानी होते हैं। पद्म लेश्या वाले जीव त्यागी, भद्र, क्षमा-भाव वाले, सात्त्विक, दानी एवं साधुजनों के गुणों के पुजारी होते हैं। शुक्ल लेश्या वाले जीव निर्वैरी, वीतरागी, निष्पक्षी, समदृष्टि, पाप कार्यों से उदासीन एवं श्रेयोमार्ग में रुचि रखने वाले होते हैं। कृष्णादि छहों लेश्याओं से रहित, संसार से विनिर्गत, अनन्तसुखी, सिद्धपुरी को प्राप्त अयोगकेवली और सिद्धजीव अलेश्यी होते हैं। परमागम में लेश्या का विवेचन, निर्देश, वर्ण, परिणाम, संक्रम, कर्म, लक्षण, गति, स्वामी, साधन, संख्या, क्षेत्र, स्पर्शन, काल, अन्तर, भाव और अल्प-बहुत्व द्वारा किया गया है। १. (क) सर्वार्थसिद्धि, २१६ । गोम्मटसार (जीवकाण्ड), ५३६ । २. धवला, ११।१।४। गाम्मटसार (जीवकाण्ड) जीवतत्वप्रदीपिका, ७०४, पृ० ११४१ । ३. षटखंडागम, १।१।१११३६ । ४. (क) तिलोयपण्णत्ति, २।२९५-३०१ । (ख) गोम्मटसार (जीवकाण्ड) ५०९-५१७ । (ग) तत्त्वार्थवार्तिक, ४।२२। ५. गोम्मटसार (जीवकाण्ड), ५५६ । ६. वही, ४९१-९२ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002140
Book TitleJain Dharma me Atmavichar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLalchand Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1984
Total Pages336
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Soul, & Spiritual
File Size13 MB
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