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१५६ : जैनदर्शन में आत्म-विचार
संयम-मार्गणा की अपेक्षा आत्मा के भेद : आचार्य भूतबली एवं पुष्पदन्त ने संयम-मार्गणा की अपेक्षा से आत्मा के निम्नांकित भेद किये हैं१. सामायिक शुद्धि संयत आत्मा : सम्पूर्ण सावद्य का त्याग करने वाला जीव । २. छेदोपस्थापना शुद्धि संयत आत्मा : व्रतों से च्युत होने पर पुनः आत्मा को
व्रतों में स्थापित करने वाला जीव । ३. परिहार शुद्धि संयत आत्मा : समस्त प्रकार के जीवों की हिंसा का त्याग
करने से और समितियों एवं गुप्तियों के पालन करने से उत्पन्न विशुद्धि
वाला जीव । ४. सूक्ष्म सम्पराय शुद्धि संयत आत्मा : मात्र सूक्ष्म लोभ-कषाय से युक्त दसवें
गुणस्थानवी जीव । ५. यथाख्यात शुद्धि संयत आत्मा : मोहनीय कर्म का पूर्ण रूप से उपशम या क्षय
होने से ग्यारहवें से चौदहवें गुणस्थानवर्ती जीव ।। ६. संयतासंयत आत्मा : अहिंसादि पाँच अणुव्रत, तीन गुणवत-दिग्व्रत, देश
व्रत और अनर्थदण्डव्रत तथा चार शिक्षाव्रत-देशावकाशिक, सामायिक, प्रोषधोपवास और वैयावृत्य का पालन करने वाला जीव । ७. असंयत आत्मा : संयम से रहित जीव असंयत कहलाता है ।२ गोम्मटसार (जीवकाण्ड) के अन्तर्गत संयम-मार्गणा में जीव-संख्या का विवेचन विवरण सहित किया गया है ।
दर्शन मार्गणा : वस्तु के सामान्य विशेषात्मक स्वरूप का विकल्प किये बिना होने वाले वस्तु-बोध (संवेदन) को गोम्मटसार (जीवकाण्ड) में दर्शन कहा गया है। इसमें पदार्थों की स्व-पर सत्ता का आभास होता है । षट्खण्डागम में दर्शनमार्गणा की अपेक्षा से आत्मा के चार भेद किये गये हैं-चक्षुदर्शन-आत्मा, अचक्षुदर्शन-आत्मा, अवधिदर्शन-आत्मा और केवलदर्शन-आत्मा। गोम्मटसार (जीवकाण्ड) में नेमिचन्द्राचार्य ने कहा है कि जो चक्षु इन्द्रिय से वस्तु को सामान्य रूप से देखता है, उसे चक्षुदर्शनआत्मा कहते हैं । चक्षु इन्द्रिय के अतिरिक्त शेष इन्द्रियों
१. षट्खण्डागम, १११।१।१२३ । २. विस्तृत स्वरूप के लिए द्रष्टव्य गोम्मटसार (जीवकाण्ड), ४७०-७९ । ३. वही, ४८०-८१ । ४. जं सामण्णं गहणं भावाणं णेव कटुमायारं । ____ अविसे सिदूण अठे दंसणमिदि भण्णये समये ॥-वही, ४८२।४८३ । ५. षट्खण्डागम, १।१।१।१३१ ।
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