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१५४ : जैनदर्शन में आत्म-विचार
मन:पर्ययज्ञान कहा है । वे कहते हैं- "जो दूसरों के मनोगत मूर्तिक द्रव्यों को उसके मन के साथ प्रत्यक्ष जानता है, वह मन:पर्ययज्ञान कहलाता है ।" अथवा मन:पर्यय यह संज्ञा रूढ़िजन्य है । इसलिए चिन्तित व अचिन्तित दोनों प्रकार के अर्थ में विद्यमान ज्ञान को विषय करने वाली यह संज्ञा है, ऐसा ग्रहण करना चाहिए ।" मन:पर्ययज्ञान की यह परिभाषा पूज्यपादाचार्य की परिभाषा से भिन्न है | आचार्य नेमिचन्द्र सिद्धान्त - चक्रवर्ती ने कहा है कि मन:पर्ययज्ञान द्रव्यमन से, जिसका आकार शास्त्रों में अष्ट पंखुड़ी वाले कमल के समान बतलाया है, उत्पन्न होता है । षट्खंडागम और गोम्मटसार जीवकाण्ड में कहा है कि यह ज्ञान समस्त जीवों को नहीं होता बल्कि केवल मनुष्यों को होता है, देवादि शेष तीन गति वालों को नहीं होता है । समस्त मनुष्यों को न हो कर केवल कर्मभूमिज, गर्भज, पर्याप्तक, सम्यग्दृष्टि, संयत अर्थात् प्रमत्त गुणस्थान से लेकर क्षीणकषाय पर्यन्त के वर्धमान चरित्र वाले तथा सात ऋद्धियों में से किसी ऋद्धि प्राप्त होने वाले किसी-किसी मनुष्य के होता है । इस ज्ञान का विषय सर्वावधिज्ञान से सूक्ष्म है ।" गोम्मटसार जीवकाण्ड में द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की अपेक्षा मन:पर्ययज्ञान के विषय का विस्तृत विवेचन किया गया है ।
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मन:पर्ययज्ञान के दो भेद : उमास्वामी ने तत्त्वार्थसूत्र में मन:पर्ययज्ञान के दो भेद किये हैं— ऋजुमति और विपुलमति । सरल मन वचन और काय से विचारे गये पदार्थ को जानने वाला ज्ञान ऋजुमति मन:पर्ययज्ञान कहा जाता है । विपुलमतिज्ञान सरल तथा कुटिल दोनों प्रकार से चिन्तित पदार्थ को जानता है ।" उमास्वामी ने इन दोनों में विशुद्धि और अप्रतिपाति की अपेक्षा अन्तर किया है । ऋजुमति की अपेक्षा विपुलमति अधिक विशुद्ध होता है । ऋजुमति - ज्ञान होकर छूट जाता है लेकिन विपुलमति ज्ञान एक बार होने पर केवलज्ञान पर्यन्त रहता है ।" अकलंक देव ने तत्त्वार्थवार्तिक में बताया है कि ऋजुमतिज्ञान
१. धवला, १।१ । १।९४ ।
२. वही, १३।५।५।२१ ।
३. गोम्मटसार ( जीवकाण्ड ) ४४२-४४ ।
४. ( क ) षट्खण्डागम, १ । १ । १ । १२१, गोम्मटसार ( जीवकाण्ड ), ४४५ ।
५. तदनन्तभागे मनःपर्यायस्य । - तत्त्वार्थसूत्र, १ २८ ।
६. गोम्मटसार ( जीवकाण्ड ), ४५० - ४५८ ।
७. तत्त्वार्थसूत्र, १।२३ ।
८. सर्वार्थसिद्धि, १२३ ।
९. तत्त्वार्थ सूत्र, १२४ ।
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