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आत्म-स्वरूप-विमर्श : १५३
सम्यक्त्वादि गुण निमित्त कारण होते हैं, वह गुण प्रत्यय अवधिज्ञान कहलाता है । यह ज्ञान मनुष्य और तिर्यञ्चों को ही होता है ।" भेद - अनुगामी, अननुगामी, वर्धमान, हीयमान, स्वामी के गुण की दृष्टि से किये गये हैं । अकलंकदेव ने क्षेत्र की अपेक्षा तीन भेद और सर्वाविधि ।
गुणप्रत्यय अवधिज्ञान के छह अवस्थित और अनवस्थित आचार्य पुष्पदन्त, भूतबली तथा किये हैं: - देशावधि, परमावधि
१. देशावधि : यह मनुष्य और तिर्यञ्चों के होता है । यह ज्ञान प्रतिपाति होता है अर्थात् होकर नष्ट हो सकता है । जघन्य, मध्यम और उत्कृष्ट ये देशावधि के तीन भेद हैं । इसका जघन्य क्षेत्र उत्सेधांगुल का असंख्यातवां भाग और उत्कृष्ट क्षेत्र सम्पूर्ण लोक है । "
२. परमावधि : चरम शरोरी संयतों को ही यह ज्ञान होता है । इसका जघन्य क्षेत्र एक प्रदेश से अधिक लोक तथा उत्कृष्ट क्षेत्र असंख्यात लोक प्रमाण है । परमावधिज्ञान अप्रतिपाति होता है ।
३. सर्वावधि : परमावधि की तरह सर्वावधि चरम शरीरी संयतों के होता है और अप्रतिपाति होता है । इसका क्षेत्र गोम्मटसारादि में उत्कृष्ट परमावधि के बाहर असंख्यात लोक क्षेत्र प्रमाण है । यह सबसे व्यापक अवधिज्ञान है । (४) मन:पर्ययज्ञान :
मन:पर्ययज्ञान का अर्थ है - किसी के मन की बात बिना पूछे प्रत्यक्ष जानना । मन:पर्ययज्ञान का स्वरूप दो प्रकार से बतलाया गया है । कुछ आचार्यों ने परकीय मनोगत पदार्थ के जानने को मन:पर्ययज्ञान कहा है । पूज्यपाद, भट्टाकलंक देव आदि आचार्यों ने यही स्वरूप माना है । कहा भी है " दूसरे के मन में स्थित पदार्थ मन कहलाता है । उस मन के सम्बन्ध से मन की पर्यायें मन:पर्यय कहलाती हैं । मन के सम्बन्ध से उस पदार्थ को जानना मन:पर्ययज्ञान कहलाता है ।'
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धवला में वीरसेनाचार्य ने पदार्थ के चिन्तनयुक्त मन या ज्ञान के जानने को
१. क्षयोपशमनिमित्तः षड्विकल्पः शेषाणाम् । - तत्त्वार्थसूत्र, १।२२ । २. गोम्मटसार ( जीवकाण्ड), ३७२ ।
३. ( क ) षट्खण्डागम १३ । ५ । ५। ५६ । गोम्मटसार ( जीवकाण्ड), ३७३ । तत्त्वार्थवार्तिक, १।२२।४ ।
४. तत्त्वार्थवार्तिक १।२२१४ में अकलंकदेव ने विस्तृत विवेचन किया है, और - गोम्मटसार ( जीवकाण्ड), ३७४ ४३७ तक
भी द्रष्टव्य -
५. सर्वार्थसिद्धि, १1९ । तत्त्वार्थवार्तिक, १|९|४; गोम्मटसार ( जीवकाण्ड),
४३८ | धवला, ६।१।९।१४ ।
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