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१५२ : जैनदर्शन में आत्म-विचार
सदैव एक दूसरे के साथ रहते हैं, अतः एक के ग्रहण करने से दूसरे का भी ग्रहण हो जाता है। इस प्रकार इन दोनों ज्ञानों में समानताएँ होते हुए भी दोनों में पर्याप्त अन्तर भी है।
पूज्यपादाचार्य ने दोनों ज्ञानों में भेद स्पष्ट करते हुए कहा है कि मतिज्ञान श्रुतज्ञान का निमित्त कारण है । मतिज्ञान होने पर भी श्रुतज्ञान का होना निश्चित नहीं होता है । दूसरी बात यह है कि मतिज्ञान कारण है और श्रुतज्ञान कार्य है क्योंकि श्रुतज्ञान मतिपूर्वक होता है। किन्तु मतिज्ञान श्रुतपूर्वक नहीं होता है। तीसरा अन्तर यह है कि मतिज्ञान वर्तमान कालवर्ती पदार्थों को जानता है और श्रुतज्ञान त्रिकालवर्ती पदार्थों को ग्रहण करता है। चौथी विशेषता यह है कि मतिज्ञान के विषय की अपेक्षा श्रुतज्ञान का विषय महान् है।" मतिज्ञान और श्रुतज्ञान में पाँचवाँ अन्तर यह है कि श्रुतज्ञान मतिज्ञान की अपेक्षा विशुद्ध होता है । छठवीं विशेषता यह है कि इन्द्रिय और अनिन्द्रिय निमित्तक मतिज्ञान आत्मा की ज्ञ-स्वभावता के कारण पारिणामिक है किन्तु श्रुतज्ञान पारिणामिक नहीं है क्योंकि श्रुतज्ञान आप्त के उपदेश से मतिपूर्वक होता है । (३) अवधिज्ञान :
अवधि का अर्थ है-सीमा । अतः जो ज्ञान अवधि ज्ञानावरण कर्म के क्षयोपशम होने पर केवल पुद्गल द्रव्य को जानता है, वह अवधिज्ञान कहलाता है । यह ज्ञान पुद्गल की कुछ पर्यायों को जानता है ।' अवधिज्ञान दो प्रकार का है : भव प्रत्यय और गुण प्रत्यय । प्रत्यय का अर्थ है-कारण । भव का अर्थ जन्म है । जिस अवधिज्ञान का कारण जन्म है, वह भवप्रत्यय अवधिज्ञान कहलाता है । यह ज्ञान देव और नारकियों के ही होता है । १० जिस अवधिज्ञान के होने में १. तत्त्वार्थवार्तिक, १।३०।४ । २. सर्वार्थसिद्धि, १२२० । ३. तत्त्वार्थवार्तिक, १।९।२१-२६ । ४. तत्त्वानुशासन भाष्य, ११२० । ५. वहीं । ६. वही। ७. वही । ८. तत्त्वार्थसूत्र : उमास्वामी, ११२७ । ९. सर्वार्थसिद्धि, ११२७ की टीका । १०. भवप्रत्ययोऽवधिदेवनारकाणाम् । -तत्त्वार्थसूत्र, ११२१ ।
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