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१४६ : जैनदर्शन में आत्म- विचार
इन्द्रिय मार्गणा : इन्द्र की तरह अपने-अपने विषयों में स्पर्शनादि इन्द्रियाँ स्वतन्त्र हैं । इनकी अपेक्षा जीवों का विवेचन आगे करेंगे ।
काय मार्गणा : काय का अर्थ शरीर हैं । किन्तु यहाँ पर काय से तात्पर्य शरीर में वर्तमान आत्मा की पर्याय से है । अतः स स्थावर रूप जीव की पर्याय को काय कहते हैं । 'काय' का कारण जाति नामकर्म और त्रस स्थावर नामकर्म का उदय है ।
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काय मार्गणा के भेद : षट्खंडागम में काय मार्गणा के सात भेद बतलाये गये हैं । पृथ्वी, अप, तेज, वायु, वनस्पति त्रस और अकाय । पृथ्वी आदि जीवों का विवेचन आगे करेंगे ।
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अकाय मार्गणा : गोम्मटसार जीवकाण्ड में अकाय मार्गगा का स्वरूप बतलाते हुए नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ती ने कहा है कि जिस प्रकार अग्नि में डालने से सोने की किट्टकालिमा नष्ट हो जाती है और सोने का शुद्ध स्वरूप चमकने लगता है, उसी प्रकार ध्यान के योग से शुद्ध और कायबन्धन से रहित (मुक्त) जीव अकायिक कहलाता है ।" इनका कोई गुणस्थान नहीं होता है ।
मार्गणा से वनस्पतिकाय मार्गणा और त्रस मार्गणा के जीव चौदह
काय मार्गणा में गुणस्थान : पृथ्वी काय के जीव मिथ्या दृष्टि नामक प्रथम गुणस्थान में गुणस्थानों में होते हैं ।
योग मार्गणा : जिसके कारण कर्मों का आत्मा के साथ सम्बन्ध होता है, उसे योग कहते हैं ।" यह योग का व्युत्पत्तिमूलक अर्थ है । पूज्यपादाचार्य ने मन, वचन और काय के कारण होने वाले आत्मप्रदेशों के कहा है । उमास्वामी के तत्त्वार्थसूत्र में मन, वचन
हलन चलन को योग और काय की अपेक्षा
योग तीन प्रकार का बताया गया है । ९ आचार्य नेमिचन्द्र ने जीवकाण्ड
१. गोम्मटसार ( जीवकाण्ड ), १६४ |
२. कायः शरीरम् । - सर्वार्थसिद्धि, २।१३ ।
३. ( क ) गोम्मटसार ( जीवकाण्ड ), १८१, जीवतत्त्वप्रदीपिका
४. षट्खण्डागम, १११।१ । ३९-४२ ।
५. गोम्मटसार ( जीवकाण्ड ), २०३ ॥
६. षट्खण्डागम १।१।१ । ४३-४६ ।
७. योजनं योगः सम्बन्ध इति यावत् । - तत्त्वार्थवार्तिक ७।१३।४ ।
८. योग वाङ्मनसकायवर्गणानिमित्त
२।२६ ।
९. तत्त्वार्थसूत्र, ६।१ ।
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आत्मप्रदेशपरिस्पन्दः । - सर्वार्थसिद्धि,
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