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________________ आत्म-स्वरूप-विमर्श : १४७ में योग के पन्द्रह भेद बतलाये हैं :- १. सत्य मनोयोग, २. असत्य मनोयोग, ३. उभय मनोयोग, ४. अनुभय मनोयोग, ५. सत्य वचन योग, ६. असत्य वचन योग, ७. उभय वचन योग, ८. अनुभय वचन योग,२ ९. औदारिक काय योग, १०. औदारिक मिश्र काय योग,३ ११. वैक्रियिक काय योग, १२. वैक्रियिक मिश्र काय योग,४ १३. आहारक काय योग,५ १४. आहारक मिश्र काय योग, १५. कार्मण काय योग । अष्ट कर्म समूह को कार्मण काय कहते हैं और इससे होने वाला योग कार्मण योग कहलाता है। यह योग एक, दो या तीन समय तक होता है । शुभ-अशुभ योग से रहित जीव अयोगी जिन कहलाते हैं । वेद मार्गणा : आत्मा में पाये जाने वाले स्त्रीत्व, पुरुषत्व और नपुंसकत्व भाव वेद कहलाते हैं । वेद का कारण वेदकर्म और आंगोपांग नामकर्म का उदय होना है। वेद दो प्रकार का होता है-द्रव्य वेद और भाव वेद ।' शरीर में आंगोपांग नामकर्म के उदय से योनि, मेहन (पुरुष लिङ्ग) आदि की रचनाविशेष द्रव्य वेद १. सब्भावमणो सच्चो, जो जोगो तेण सच्चमणजोगो । तव्विवरीओ मोसो, जाणुभयं सच्चमोसोत्ति ॥ ण य सच्चमोसजुत्तो, जो दु मणो सो असच्चमोसमणो । जो जोगो तेण हवे, असच्चमोसो दु मणजोगो ।। -गोम्मटसार (जीवकाण्ड), २१८-१९ । २. दसविहसच्चे वयणे, जो जोगो सो दु सच्चवचिजोगो। तविवरीओ मोसो, जाणुभयं सच्चमोसोत्ति ॥ जो णेव सच्चमोसो, सो जाण असच्चमोसवचिजोगो । अमणाणं जा भासा सण्णीणामंतणी आदी ।। -वही, २२०-२१ ३. ओरालिय उत्तत्थं विजाण मिस्सं तु अपरिपुण्णं तं । जो तेण संपजोगो ओरालियमिस्स जोगो सो॥ -वही, २३१ । ४. वैक्रियिक शरीर जब तक पूर्ण नहीं होता तब तक वह वैक्रियिक मिश्र है और __इसके द्वारा होने वाला योग वैक्रियिक मिश्र काययोग है । ५. वही, २३५-४० । ६. वही, २४३। ७. वही, २७१-२७२ । ८. सर्वार्थसिद्धि, २१५२ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002140
Book TitleJain Dharma me Atmavichar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLalchand Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1984
Total Pages336
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Soul, & Spiritual
File Size13 MB
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