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________________ आत्म-स्वरूप-विमर्श : १४३ प्राण प्ररूपणा :जीव में जीवितपने का व्यवहार कराने वाला प्राण है । यह दो प्रकार का है, निश्चय (भाव) प्राण और व्यवहार (द्रव्य) प्राण ।' आगम में जीव की चेतनत्व शक्ति निश्चय प्राण' और पुद्गल द्रव्य से निर्मित स्पर्शनादि पाँच इन्द्रिय, मन, वचन, काय, श्वासोच्छ्वास तथा आयु व्यवहार प्राण कहलाते हैं ।३ पुद्गलात्मक प्राण जीव के स्वभाव नहीं हैं । प्राण प्ररूपणा में निश्चय प्राण ही अभिप्रेत हैं । स्थावर जीवों के स्पर्शनेन्द्रिय, काय, बल, श्वासोच्छवास और आयु ये चार प्राण होते हैं । द्वीन्द्रिय जीवों के स्पर्शन इन्द्रिय आदि चार प्राणों सहित रसनाप्राण और वचनप्राण भी होते हैं । तीन इन्द्रिय वाले जीवों के स्पर्शन, रसना, घ्राण इन्द्रिय, प्राण, कायबल, वचनबल, श्वासोच्छ्वास और आयु ये सात प्राण होते हैं । चतुरिन्द्रिय के इन सात प्राणों में चक्षु प्राण के मिलाने पर आठ प्राण, असंज्ञी पंचेन्द्रिय के उपर्युक्त आठ तथा श्रोत्र प्राण मिलाकर नौ तथा मनोबल और उपर्युक्त नौ प्राण मिलाकर संज्ञी के दस प्राण होते हैं।४ सयोग केवली के वचन, श्वासोच्छ्वास, आयु और काय ये चार प्राण होते हैं और अयोगी के एक आयु प्राण होता है ।६ सिद्धों के दस प्राणों में से एक भी प्राण नहीं होता है, इसलिए वे प्राणातीत कहलाते हैं । पर्याप्ति और प्राण में भेद : षटखंडागम की टीका धवला में वीरसेन ने पर्याप्ति और प्राण में भेद करते हुए कहा है कि पर्याप्ति के कारण आहार, शरीर, इन्द्रिय, भाषा और मन रूप शक्तियों की पूर्णता होती है और प्राणों के कारण आत्मा में जीवितपने का व्यवहार होता है। दूसरा अन्तर यह है कि पर्याप्ति कारण है और प्राण कार्य है। प्राण प्ररूपणा का विवेचन करके आचार्यों ने शुद्ध चैतन्यादि प्राणों से युक्त शुद्ध आत्मा की उपादेयता प्रतिपादित की है। १. प्राणिति जीवति एभिरिति प्राणाः ।-धवला, २।१।१ । जीवन्ति-प्राणति जीवितव्यवहारयोग्या भवन्ति जीवा यस्ते प्राणाः । -गोम्मटसार (जीवकाण्ड), जीवतत्त्वप्रदीपिका, २ । २. तेषु चित्सामान्यान्वयिनो भावप्राणाः ।-पंचास्तिकाय, तत्वदीपिका, ३० । ३. गोम्मटसार (जीवकाण्ड), १३० ।। ४. सर्वार्थसिद्धि, २।१४। गोम्मटसार ( जीवकाण्ड ), १३२-३३। पंच संग्रह, १५० । ५. धवला, २।१।१ । ६. वही, पृ० ४४५ । ७. धवला, ११११११३४। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002140
Book TitleJain Dharma me Atmavichar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLalchand Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1984
Total Pages336
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Soul, & Spiritual
File Size13 MB
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