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१४२ : जैनदर्शन में आत्म- विचार
१. आहार पर्याप्ति : मृत्यु के बाद नवीन शरीर के योग्य नोकर्मवर्गणा को ग्रहण करना आहार कहलाता है । अतः शरीर नामकर्म के उदय से आहार को खल, रसभाग रूप परिणमन करने की जोव की शक्ति का पूर्ण होना आहार पर्याप्ति कहलाती है । '
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२. शरीर पर्याप्ति : जीव की वह शक्तिविशेष जिसके पूर्ण होने पर आहार पर्याप्ति के द्वारा परिणत खलभाग हड्डी आदि कठोर अवयवों में और रस भाग खून, वसा, और वीर्य आदि तरल अवयवों में परिणत हो जाता है शरीर पर्याप्त कहलाती है । शरीर पर्याप्ति के कारण ही औदारिकादि शरीरों की शक्ति से युक्त पुद्गल स्कन्धों की प्राप्ति होती है ।
३. इन्द्रिय पर्याप्ति : इन्द्रियों की पूर्णता इन्द्रिय पर्याप्ति कहलाती है । कहा भी है : " दर्शनावरण और वीर्यान्तराय कर्म के क्षयोपशम योग्य देश में स्थित रूपादि से युक्त पदार्थों को ग्रहण करने वाली शक्ति की उत्पत्ति के कारण - भूत पुद्गल प्रचय की प्राप्ति इन्द्रिय पर्याप्ति कहलाती है । ३"
४. श्वासोच्छ्वास पर्याप्ति: आहार वर्गणा से ग्रहण किये गये पुद्गल स्कन्धों को उच्छ्वास- निःश्वास रूप से परिणत करने वाली शक्ति को पूर्णता श्वासोच्छ्वास पर्याप्त कहलाती है ।"
पुद्गल स्कन्ध कहा भी है :
५. भाषा पर्याप्ति : जिस शक्ति के पूर्ण होने से वचन रूप वचनों में परिणमित होते हैं वह भाषा पर्याप्ति कहलाती है । "स्वर नामकर्म के उदय से भाषा वर्गणा रूप पुद्गल स्कन्धों को सत्य, असत्य " आदि भाषा रूपों में परिणत करने की शक्ति की निष्पत्ति (पूर्णता ) भाषा पर्याप्त कहलाती है ।"
६. मनः पर्याप्ति : जिस शक्ति के पूर्ण होने से द्रव्यमन योग्य पुद्गल स्कन्ध द्रव्यमन के रूप में परिणत हो जाते हैं उसे मनः पर्याप्ति कहते हैं ।
१. गोम्मटसार ( जीवकाण्ड), जीवतत्त्वप्रदीपिका, ११९, धवला, १।१।१।३४ । २ . वही ।
३. वही ।
४. वही ।
५. धवला, १ । १ । १ । ३४ ।
६. वही ।
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