________________
आत्म-स्वरूप-विमर्श : १४१
कारण पर्याप्ति नाम-कर्म का उदय होना है।' मृत्यु के पश्चात् संसारी जीव दूसरा जन्म लेने के लिए योनि स्थान में प्रवेश करते ही अपने शरीर के योग्य कुछ पुद्गल वर्गणा को ग्रहण करता है इसी को आहार कहते हैं । इस आहार वर्गणा को खल, रसभाग आदि में परिणत करने की जीव की शक्ति का पूर्ण हो जाना पर्याप्ति है । आहार, शरीर, इन्द्रिय, श्वासोच्छ्वास, भाषा और मन इन छहों पर्याप्तियों का आरम्भ युगपत् होता है लेकिन उनकी पूर्णता क्रम से होती है। आचार्य नेमिचन्द्र, वीरसेन आदि ने बताया है कि एकेन्द्रिय जीवों के आहार, शरीर, इन्द्रिय और श्वासोच्छ्वास ये चार पर्याप्तियाँ होती हैं । द्वीन्द्रिय से लेकर असंज्ञी पञ्चेन्द्रिय जीवों के आहार, शरीर, इन्द्रिय, श्वासोच्छ्वास और भाषा पाँच तथा संज्ञी पंचेन्द्रिय जीवों के छहों प्रकार की पर्याप्तियाँ होती हैं ।
पर्याप्ति प्ररूपणा के अनुसार जीव के भेद : पर्याप्ति प्ररूपणा के अनुसार जीव पर्याप्तक और अपर्याप्तक की अपेक्षा दो प्रकार के कहे गये हैं । यद्यपि जीव पर्याप्तक और अपर्याप्तक, पर्याप्ति और अपर्याप्ति नामकर्म के उदय से होता है लेकिन प्रस्तुत में शरीर पर्याप्ति के पूर्ण होने (इन्द्रियादि अपूर्ण रहने पर भी) से जीव पर्याप्तक कहलाता है । अपर्याप्तक जीव दो प्रकार के होते हैं निर्वृत्ति और लब्ध अपर्याप्तक । जब तक शरीर पर्याप्ति की पूर्णता नहीं होती है तब तक वह निर्वृत्ति अपर्याप्त कहलाता है। कुछ अपर्याप्त जीव शरीर पर्याप्ति पूर्ण किये अन्तर्मुहूर्त काल में मर जाते हैं, एक अन्तर्मुहूर्त में ६६३३६ बार या एक श्वास में १८ बार जन्म-मरण करने वाले आगम में लब्ध अपर्याप्तक जीव कहलाते हैं ।" यह लब्ध्यपर्याप्तक जीव मिथ्यात्व गुणस्थान में होते हैं। निर्वत्यपर्याप्तक जीव सासादन, असंयत और प्रमत्त गुणस्थान में होते हैं और पर्याप्तक सभी गुणस्थानों में होते हैं ।
१. गोम्मटसार (जोवकाण्ड), ११८ का हिन्दी भावार्थ । २. वही, १२० । ३. (क) षट्खंडागम, १।१।१।७१-७५ । (ख) गोम्मटसार (जीवकाण्ड), ११९ । ४. जाव सरीरमपुण्णं णिव्वत्ति अपुण्णगो ताव ।।-वहो, १२१ ।
शरीरपर्याप्त्या निष्पन्नः पर्याप्त इति भण्यते ।-धवला, ११।११७६, १५ । ५. उदये दु अपुण्णस्स य सगसगपज्जत्तियं ण णिवदि ।
अंतोमुत्तमरणं लद्धि अपज्जत्तगो सो दु॥-गोम्मटसार (जीवकाण्ड),
१२३ । ६. गोम्मटसार (जीवकाण्ड), १२७ ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org