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१४० : जैनदर्शन में आत्म-विचार
पृथिवीकायिक जीवों के २२ लाख करोड़ कुल जलकायिक जीवों के
७ लाख करोड़ कुल वायुकायिक जीवों के
७ लाख करोड़ कुल तेजकायिक जीवों के
३ लाख वनस्पति जीवों के
२८ लाख करोड़ कुल द्वीन्द्रिय जीवों के
७ लाख करोड़ कुल त्रीन्द्रिय जीवों के
८ लाख करोड़ कुल चतुरिन्द्रिय जीवों के
९ लाख करोड़ कुल पंचेन्द्रिय जीवों में जलचर के १२३ लाख करोड़ कुल
, खेचर के १२ लाख करोड़ कुल पंचेन्द्रिय जीवों में भूचर के १० लाख करोड़ कुल पंचेन्द्रिय जीवों में भूचर (सर्पादि) के ९ लाख करोड़ कुल पंचेन्द्रिय जीवों में नारकियों के २५ लाख करोड़ कुल
मनुष्यों के १२ लाख करोड़ कुल
देवों के २९ लाख करोड़ कुल समस्त जीवों के कुलों की संख्या एक कोडाकोड़ी सतानवे लाख तथा पचास हजार कोटि है लेकिन मूलाचार में वट्टकेर ने मनुष्यों के कुल चौदह लाख कोटि कहे हैं । अतः इस मत से कुलों की संख्या १९९३ लाख करोड़ है।'
इस तरह जैन शास्त्रों में जीवसमास का जो विवेचन उपलब्ध होता है उससे जीव विज्ञान पर पर्याप्त शोध सामग्री प्राप्त हो जाती है । जहाँ तक हमारा अध्ययन है इस तरह जीवों के स्थानों का विवेचन अन्यत्र दृष्टिगोचर नहीं होता । अतः जैन दर्शन की जीवसमास विषयक एक महत्त्वपूर्ण उपलब्धि कही जा सकती है।
पर्याप्ति-प्ररूपणा : आहार, शरीर, इन्द्रिय, श्वासोच्छ्वास, भाषा और मन की निष्पत्ति या पूर्णता को आगम में पर्याप्ति कहते हैं ।२ पर्याप्ति का प्रमुख १. छब्बीसं पणवीसं चउदसकुलकोडिसदसहस्साईं।
सुरणेरइयणराणं जहाकम होइ णायव्वं ।। मूलाचार, २२४ । २. (क) आहार शरीर""निष्पत्तिः पर्याप्तिः ।-धवला, १११।१७० । (ख) आहार-सरीरीदियणिस्सासुस्सास भास मणसाणं ।
परिणइ वावारेसु य जाओ छच्चेव सत्तीओ ।। तस्सेव कारणाणं पुग्गलखंधाण जाहु णिप्पत्ती । सा पज्जत्ती भण्णदि-॥ कार्तिकेयानुप्रेक्षा, १३४-३३५ ।
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