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________________ १३८ : जैनदर्शन में आत्म-विचार वंशपत्र तीन प्रकार की होती है । शंखावर्त योनि में गर्भ नहीं रहता । कूर्मोन्नत ( कछुआ की पीठ की तरह उठी हुई) योनि में तीर्थंकर, अर्धचक्रवर्ती, चक्रवर्ती, बलभद्र पुरुष उत्पन्न होते हैं और वंशपत्र योनि में साधारण जीव उत्पन्न होते हैं ।" गुण की अपेक्षा योनि के नौ भेद हैं- सचित्त, शीत, संवृत ( ढकी हुई) अचित्त, उष्ण, विवृत ( खुली), सचित्ताचित्त, शीतोष्ण और संवृत-विवृत 12 मूलाचार में वट्टकेर ने बताया है कि एकेन्द्रिय, नारकी और देव संवृत योनि होती है, दो इन्द्रिय से चतुरेन्द्रिय तक के जीवों के विवृत योनि होती है । गर्भजों के संवृत-विवृत मिश्र योनि होती है । देव नारकियों के अचित्त योनि और गर्भजों के सचित्ताचित्त रूप मिश्र योनि तथा शेष संमूर्छनों के सचित्त, अचित्त और मिश्र ये तीनों योनि होती हैं । देव नारकियों के शीत और उष्ण योनि, तेजकायिक जीव के उष्ण तथा शेष जीवों की तीनों प्रकार की योनि होती है । विस्तार को अपेक्षा से योनि के भेद: वट्टकेर एवं नेमिचन्द्र आदि आचार्यों ने योनि के चौरासी लाख भेद किये हैं, नित्य निगोद, इतर निगोद, पृथ्वी, जल, तेज, वायु की सात-सात लाख योनि, प्रत्येक वनस्पति की दस लाख, द्वीन्द्रिय से चतुरिन्द्रिय तक प्रत्येक की दो-दो लाख, देव नारकी और पंचेन्द्रिय तिर्यंच तक की प्रत्येक चार-चार लाख और मनुष्य की चौदह लाख योनि होती हैं। शरीर की अवगाहन की अपेक्षा से जीवसमास का निरूपण : शरीर के छोटेबड़े भेद देहावगाहना हैं । पूज्यपाद ने सर्वार्थसिद्धि के दसवें अध्याय में कहा भी है 'प्राणी को जितना शरीर मिला है उतने में आत्म प्रदेशों को व्याप्त करके रहना जीव की अवगाहना कहलाती है । जघन्य और उत्कृष्ट की अपेक्षा से अवगाहना दो प्रकार की होती है ।" सर्वजघन्य अवगाहना उत्पत्ति के तीसरे समय में सूक्ष्म निगोदिया लब्ध पर्याप्तक जीव की अंगुली के असंख्यातवें भाग प्रमाण १. गोम्मटसार, (जीवकाण्ड ), ८२-८३ । २. तत्त्वार्थसूत्र, २ । ३२ ॥ (ख) गोम्मटसार, (जीवकाण्ड), ८४ । ३. मूलाचार, १०९९-११०१ । ४. ( क ) मूलाचार, गा० २२६ । (ख) गोम्मटसार, (जीवकाण्ड ), ९० । ५. सर्वार्थसिद्धि, १०।१ । ६. एक हाथ में २४ अंगुल होते हैं । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002140
Book TitleJain Dharma me Atmavichar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLalchand Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1984
Total Pages336
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Soul, & Spiritual
File Size13 MB
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