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________________ आत्म-स्वरूप-विमर्श : १३७ काण्ड में किये गये हैं। उपर्युक्त जीवों के ५७ भेदों में से पंचेन्द्रिय छह भेद (संज्ञी पर्याप्त. संज्ञी अपर्याप्त, संशी निर्वृत्यपर्याप्त और इसी प्रकार असंज्ञी पर्याप्त आदि तीन) घटाने पर विकलेन्द्रिय जीव ५१ प्रकार के रहते हैं। इनमें कर्म भूमि तियंच के तीस भेद और भोगभूमिज तिर्यञ्च के चार भेद मिलाने पर तिर्यग्गति सम्बन्धी जीव समास के ८५ भेद होते हैं। पर्याप्त आर्य मनुष्य, नित्यपर्याप्त आर्य मनुष्य, लब्ध पर्याप्त आर्य मनुष्य, पर्याप्त मोक्ष मनुष्य, निर्वृत्यपर्याप्त म्लेच्छ मनुष्य, पर्याप्त भोगभूमिज मनुष्य, निर्वृत्यपर्याप्त भोगभूमिज मनुष्य, पर्याप्त कुभोगभमिज मनुष्य और निर्वत्यपर्याप्त कुभोगभूमिज मनुष्य-ये मनुष्यों के ९ भेद होते हैं । देवों के दो भेद हैं-पर्याप्त और निर्वृत्यपर्याप्त देव । नारकियों के दो भेद हैं-पर्याप्त नारकी और निर्वत्यपर्याप्त नारकी। इस प्रकार (तिर्यग्गति के ८५ भेद, मनुष्य गति के ९ भेद, देवगति के २ भेद, नरकगति के २ भेद) जीव समास के ९८ भेद होते हैं। योनि अधिकार को अपेक्षा से जीव समास का वर्णन : जीवों के उत्पन्न होने के स्थान को पूज्यपाद आदि आचार्यों ने योनि कहा है । योनि और जन्म में भेद करते हुए सर्वार्थसिद्धि तथा तत्त्वार्थवार्तिक में कहा है कि योनि आधार है और जन्म आधेय है। क्योंकि सचित्त आदि योनि रूप आधार में सम्मूर्च्छन, गर्भज और उपपात जन्म के द्वारा आत्मा शरीर, आहार और इन्द्रियों के योग्य पुद्गलों को ग्रहण करता है । नेमिचन्द्राचार्य ने गोम्मटसार जीवकांड में योनि का दो प्रकार से विवेचन किया है । आकार अपेक्षा से योनि शंखावर्त, कूर्मोन्नत और १. इगिवण्णं इगिविगले, असण्णिसण्णिगयजलथलखगाणं । गब्भभवे सम्मुच्छे, दुतिगं भोगथलखेचरे दो दो ॥-गोम्मटसार (जीवकाण्ड), ७९ । कर्मभूमिज और भोगभूमिज तिर्यञ्चों के विस्तृत भेद के लिए द्रष्टव्य-द्वितीय अध्याय । २. वही, ८१ ३. (क) योनिरुपपाददेशपुद्गलप्रचयः । -सर्वार्थसिद्धि, २।३२ । (ख) यूयत इति योनिः ।-तत्त्वार्थवार्तिक, २।३२।१०। (अ) आधाराधेयभेदात्तद्भेदः ।-वही, २।३२ । (आ)तत्त्वार्थवार्तिक, पृ० १४२ । जीवों का जन्म तीन प्रकार का है-गर्भज, सम्मळुनज व उपपादज | गर्भज जन्म तीन प्रकार का है-जरायुज, अंडज और पोतज । चारों ओर से परमाणु के मिश्रण से स्वयं उत्पन्न होना स्वतः उत्पन्न होना संमूर्च्छन है। इसमें तिथंच उत्पन्न होते हैं । देव और नारकियों का उत्पन्न होना उपपात जन्म कहलाता है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002140
Book TitleJain Dharma me Atmavichar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLalchand Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1984
Total Pages336
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Soul, & Spiritual
File Size13 MB
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