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________________ १३६ : जैनदर्शन में आत्म-विचार (ग) आत्म विवेचन के प्रकार : जीवसमास तथा मार्गणाएं जैन दर्शन में आत्मा के विवेचन के लिए विविध प्रकारों का आश्रय लिया गया है। मार्गणा, जीवसमास और गुणस्थान ऐसे प्रकार हैं जो जैन दर्शन में ही उपलब्ध हैं और जिन्हें जैन दर्शन की अपूर्व देन मानी जानी चाहिए । आचार्य नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ती ने बीस प्ररूपणाओं द्वारा जीव का विवेचन किया है ।' ये प्ररूपणाएँ इस प्रकार हैं :-१. गुणस्थान, २. जीवसमास, ३. पर्याप्ति, ४. प्राण, ५. संज्ञा, ६-१९. चौदह मार्गणा और २०. उपयोग । गुणस्थान का विवेचन आगे करेंगे । प्रस्तुत अध्याय में सर्वप्रथम जीवसमास प्ररूपणा का दिग्दर्शन कराया गया है। ___ जीवसमास : जिन स्थानों में जीवों का सद्भाव पाया जाता है उन स्थानों का नाम जीवसमास है। आचार्य नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ती ने जीवसमास का विवेचन विस्तृत रूप से किया है। सामान्य की अपेक्षा आगम में जीवसमास के चौदह भेद किये गये हैं। बादर एकेन्द्रिय, सूक्ष्म एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, असंज्ञी पंचेन्द्रिय और संज्ञी पंचेन्द्रिय । ये सातों प्रकार के जीव पर्याप्त और अपर्याप्त प्रकार के होते हैं। विस्तार से जीव समास के ५७ भेद हैं-बादर पृथिवी, सूक्ष्म पृथिवी, बादर जल, सूक्ष्म जल, बादर तेज, सूक्ष्म तेज, बादर वायु, सूक्ष्म वायु, बादर नित्य निगोद, सूक्ष्म नित्य निगोद, बादर इतर निगोद, सूक्ष्म इतर निगोद, सप्रतिष्ठित वनस्पति और अप्रतिष्ठित वनस्पति, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और संज्ञी एवं असंज्ञी पंचेन्द्रिय । ये उन्नीस प्रकार के जोव पर्याप्त, निर्वृत्यपर्याप्त और लब्ध्यपर्याप्त होते हैं । इस प्रकार १९x ३ = ५७ जीवसमास के विस्तृत भेद हैं । इसके अतिरिक्त आचार्य नेमिचन्द्र ने स्थान, योनि, शरीर की अवगाहना और कुल-इन चार अधिकारों द्वारा जीव समास का निरूपण किया है। स्थानाधिकार अपेक्षा से जीवसमासों का वर्णन : एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रियादि जाति भेद स्थान कहलाता है। स्थान की अपेक्षा से जीव समास के ९८ भेद जीव१. (क) जीवाः सम्यगासतेऽस्मिन्निति जीवसमासः ।-धवला, १११।१।८ । (ख) जीवाः समस्यन्ते एष्विति जीवसमासाः । वही, ११११११२ । २. गोम्मटसार (जीवकाण्ड) गा० २ । ३. (क) षट्खंडागम, १।१।१।३३-३५ । (ख) गोम्मटसार (जीवकाण्ड), ७४ । ४. वही, ७४ । बादरादि शब्दों का अर्थ तथा एकेन्द्रिय आदि जीवों का विवेचन इसी अध्याय में आगे करेंगे । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002140
Book TitleJain Dharma me Atmavichar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLalchand Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1984
Total Pages336
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Soul, & Spiritual
File Size13 MB
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