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________________ आत्म-स्वरूप-विमर्श : १३५ १ अतिशय युक्त होने से अणुपरिमाण से बढ़ते-बढ़ते आकाश में पूर्ण रूप से महापरिमाण वाला हो जाता है, उसी प्रकार ज्ञान अतिशय वाला होने से उसके प्रकर्ष की पूर्णता भी किसी आत्मा में अवश्य होती है । जिस आत्मा में ज्ञान का पूर्ण प्रकर्ष होता है वही सर्वज्ञ कहलाता है । जिस प्रकार मणि आदि की मलिनता विपक्षी साधनों के संयोग से अत्यन्त नष्ट हो जाती है उसी प्रकार किसी आत्मा में आवरणादि के प्रतिपक्षी ज्ञानादि का प्रकर्ष होने पर आवरणादि का अत्यन्ताभाव हो जाता है । अतः सर्वज्ञता की सत्ता यथार्थ है । इसके अतिरिक्त सर्वज्ञ - सिद्धि में एक महत्त्वपूर्ण तर्क यह भी दिया है कि उसकी सत्ता का कोई बाधक प्रमाण नहीं है । " जिस प्रकार बाधकाभाव के विनिश्चय चक्षु आदि से उत्पन्न ज्ञान को प्रमाण माना जाता है उसी प्रकार बाधा के असम्भव का निर्णय होने से सर्वज्ञ के अस्तित्व को न मानना महान् साहस है । " सर्वज्ञ है" यह ज्ञान उसी प्रकार स्वतः ही प्रमाण है तथा बाधक रहित है जैसे "मैं सुखी हूँ" यह ज्ञान निर्बाध है । विद्यानन्द ने अकलंक देव के इस युक्ति का अनुकरण करके अष्टसहस्री, आप्तपरीक्षादि ग्रन्थों में इसका सूक्ष्म एवं विस्तृत विवेचन किया है । इसी प्रकार अन्य आचार्यों ने भी अनेक तर्कों द्वारा सर्वज्ञ की सत्ता सिद्ध की । उन तर्कों को यहाँ प्रस्तुत करना सम्भव नहीं है । उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि समस्त जैन तर्कशास्त्रियों ने त्रिकाल और त्रिलोकवर्ती पदार्थों के ज्ञाता के रूप में एक स्वर से सर्वज्ञता की स्थापना तथा उसका समर्थन किया है । बौद्धों की तरह जैन तर्कशास्त्रियों ने धर्मज्ञता और सर्वज्ञता का भेद करके उनमें मुख्य और गौण रूप से विचार नहीं किया । जैन दार्शनिकों का विचार है कि जो सर्वज्ञ होता है उसमें धर्मज्ञता स्वत: निहित होती है । वैदिक दर्शन की अपेक्षा जैन दर्शन के सर्वज्ञता सम्बन्धी विचार में अन्तर यह है कि जैन दार्शनिक मोक्ष प्राप्ति के लिए सर्वज्ञता को अनिवार्य मानते हैं । जीवन - मुक्ति ( केवली ) अवस्था में यह सर्वज्ञता प्राप्त होती है और मुक्त होने पर भी रहती है । क्योंकि जैन दर्शन समस्त मुक्त जीवों का स्वतन्त्र अस्तित्व मानता है । यहाँ सर्वज्ञता सादि और अनन्त मानी गयी है । यह कहना अतिशयोक्ति नहीं है कि जैन दर्शन ही मुख्यतया सर्वज्ञवादी दर्शन है, क्योंकि ज्ञ-स्वभाव आत्मा का स्वरूप यहाँ सर्वज्ञता में पर्यवसित है । १. ज्ञानस्यातिशयात् सिध्येद्विभुत्वं परिमाणवत् । | वैशद्यं क्वचिद्दोषमलहाने स्तिमिराक्षवत् ॥ - सिद्धिविनिश्चय टीका, कारिका ८८, पृ० ५३९ ८ ९, पृ० ५४० ॥ २ . वही, कारिका, ८।६-७, पृ० ५३७ ५३८ । ३. आप्तपरीक्षा, ९६-११० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002140
Book TitleJain Dharma me Atmavichar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLalchand Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1984
Total Pages336
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Soul, & Spiritual
File Size13 MB
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