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१३४ : जैनदर्शन में आत्म-विचार युक्ति का अकलंक देव, हरिभद्र एवं विद्यानन्द आदि आचार्यों ने अनुकरण किया है।
उनको दूसरी युक्ति है कि जिस प्रकार तपाने से सोने का बाह्य और आन्तरिक कीट-कालिमादि मल का पूर्ण क्षय ( अभाव ) हो जाता है, उसी प्रकार तपस्या आदि से आत्मा के ( सर्वज्ञता को रोकने वाले ) दोष और आवरणों का पूर्ण क्षय अवश्य होता है । जिस आत्मा के समस्त दोष और आवरणों का समूल क्षय हो जाता है वही आत्मा सर्वज्ञ है ।।
भट्टाकलंक देव ने सर्वज्ञता की स्थापना महत्त्वपूर्ण युक्तियों द्वारा की है। उनकी पहली युक्ति है कि आत्मा में सकल पदार्थों को जानने की शक्ति है । किन्तु संसारी दशा में ज्ञानावरणादि कर्मों के आवरणों से युक्त होने के कारण
आत्मशक्ति पूर्ण रूप से प्रकाशित नहीं हो पाती है। लेकिन जब समस्त आवरण नष्ट हो जाते हैं तो वही अतीन्द्रिय ज्ञान समस्त ज्ञेयों को क्यों नहीं जानेगा ? अर्थात् बाधा के अभाव में अवश्य ही जानेगा।
अकलंकदेव का दूसरा तर्क है कि यदि किसी को अतीन्द्रिय पदार्थों का ज्ञान नहीं होता है तो सूर्य, चन्द्र आदि ज्योतिष-ग्रहों की ग्रहण आदि भविष्यकालीन दशाओं का उपदेश कैसे हो सकेगा ? ज्योतिर्ज्ञान मिथ्या न होकर अविसंवादो होता है। अतः सिद्ध है कि उनका उपदेश करने वाला त्रिकालदर्शी था तथा जिस प्रकार सत्य स्वप्न दर्शन से इन्द्रियादि की सहायता की अपेक्षा किये बिना भावी राज्यादि लाभ का यथार्थ ज्ञान हो जाता है उसी प्रकार सर्वज्ञ का ज्ञान अतीन्द्रिय पदार्थों में वैशद्य रूप होता है और सभी पदार्थ स्पष्ट प्रकाशित होते हैं।"
सर्वज्ञता सिद्ध करने के लिए उनका तीसरा तर्क है कि जिस प्रकार परिमाण,
१. (क) न्यायविनिश्चय, ३।२९ । (ख) सिद्धिविनिश्चय, ८।३१ । (ग) शास्त्रवार्तासमुच्चय, १०१५९३ । (घ) तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक, १११ ।
__ कारिका, १० । (ङ) आप्तपरीक्षा, कारिका, ८ । २. आप्तमीमांसा, कारिका, ४ । ३. ज्ञस्यावरणविच्छेदे ज्ञेयं किमवशिष्यते । अप्राप्यकारिणस्तस्मात् सर्वार्था___ वलोकनम् ॥-न्यायविनिश्चय, ३।८०, ३।२४, २।१९२-९३ । ४. (क) धीरत्यन्तपरोक्षेऽर्थे न चेत्पुंसां कुतः पुनः ।
ज्योतिर्ज्ञानाविसंवादः श्रुताच्चेत् साधनान्तरम् ।।-सिद्धिविनिश्चय टीका,
८।२, पृ० ५२६ । (ख) न्यायविनिश्चय, ३।२८ । ५. न्यायविनिश्चय, ३।२१ ।
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