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________________ आत्म-स्वरूप-विमर्श : १३३ प्रकट हो जाती है । षट्खंडागम में कहा गया है कि "स्वयं उत्पन्न हुए ज्ञान और दर्शन से युक्त भगवान्......", सब लोकों, सब जीवों और समस्त पदार्थों को एक साथ ( युगपत् ) जानते हैं एवं देखते हैं ।" आचारांग सूत्र में भी यही कहा है। कुन्दकुन्दाचार्य३, शिवार्य एवं नियुक्तिकार भद्रबाह ने वीतरागी केवलज्ञानी को समस्त पदार्थों का युगपत् द्रष्टा कहा है । आचार्य कुन्दकुन्द ने नियमसार के शुद्धोपयोगाधिकार में कहा है कि "केवलो भगवान् समस्त पदार्थों को जानते और देखते हैं, यह कथन व्यवहार नय की अपेक्षा से है लेकिन निश्चय नय की अपेक्षा से वे अपने आत्म-स्वरूप को जानते और देखते हैं ।" इस पर डॉ० महेन्द्रकुमार ने सिद्धिविनिश्चय की प्रस्तावना में लिखा है कि "इससे स्पष्ट फलित होता है कि केवली की परपदार्थज्ञता व्यावहारिक है, नैश्चयिक नहीं। व्यवहार नय को अभूतार्थ और निश्चय नय को भूतार्थ-परमार्थ स्वीकार करने की मान्यता से सर्वज्ञता का पर्यवसान अन्ततः आत्मज्ञता से हो होता है।" तार्किक युग में समन्तभद्राचार्य, सिद्धसेन, भट्टाकलंकदेव , हरिभद्र, वीरसेन, विद्यानन्द, प्रभाचन्द्र और हेमचन्द्र प्रभूति जैन तर्कशास्त्रियों ने प्रबल युक्तियों से सर्वज्ञ की सत्ता स्थापित की है । समन्तभद्र स्वामी का तर्क है कि परमाणु और धर्म आदि सूक्ष्म पदार्थ, अतीत में हुए राम-रावणादि अन्तरित अर्थात् काल की दृष्टि से जिनका अन्तराल है ऐसे पदार्थ और हिमवान् आदि देश विप्रकृष्ट पदार्थ किसी पुरुष के प्रत्यक्ष हैं क्योंकि वे अनुमेय हैं, जैसे अग्नि आदि । जिसको सूक्ष्मादि अतीन्द्रिय पदार्थों का प्रत्यक्ष होता है वही सर्वज्ञ है। इस प्रकार अनुमान प्रमाण से सर्वज्ञ की सत्ता सिद्ध को गयी है। समन्तभद्राचार्य को इस १. षड्खण्डागम, १३।५।५।८२ । २. आचारांग सूत्र, श्रु० २, चू० ३ । दर्शन और चिन्तन , पृ० १२९ पर उद्धृत । ३. प्रवचनसार, ११४७ । नियमसार, १६७ । ४. भावे सगविसयत्थे सूरो जुगवं जहा पयासे इ। . सव्वं वि तहा जुगवं केवलणाणं पयासेदि ।-भगवतो आराधना, २१४२ । ५. संभिणां पासंतो लोगमलोगं च सव्वओ सव्वं । तं णत्थि जं न पासइ भूयं भव्वं भविस्सं च ॥-आवश्यक नियुक्ति, का० १२७ । ६. नियमसार, गा० १५९ । ७. सिद्धिविनिश्चय टीका, प्रस्तावना, पृ० १११ । ८. आप्तमीमांसा, कारिका, ५ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002140
Book TitleJain Dharma me Atmavichar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLalchand Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1984
Total Pages336
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Soul, & Spiritual
File Size13 MB
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