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आत्म-स्वरूप-विमर्श : १३१
वेदान्त दर्शन में सर्वज्ञता : वेदान्त दार्शनिक सर्वज्ञता को अन्तःकरणनिष्ठ मानते हैं। वेदान्तियों का मत है कि इस प्रकार की सर्वज्ञता जीवन-मुक्त दशा तक ही रहती है, अन्त में नष्ट हो जाती है। मुक्त दशा में ब्रह्म के सच्चिदानन्द स्वरूप में मुक्त जीव विलीन हो जाता है। इस प्रकार विवेचन से स्पष्ट है कि न्याय वैशेषिक परम्परा में सर्वज्ञता अनादि अनन्त न होकर सादि और सान्त है।
श्रमण परम्परा में सर्वज्ञता : श्रमण परम्परा में जैन और बौद्ध-ये दो दर्शन प्रमुख हैं। इनकी मान्यता है कि कोई भी व्यक्ति धर्म-साधना के द्वारा वीतरागी तथा केवलज्ञानी बन सकता है और समस्त अतीन्द्रिय पदार्थों को जान सकता है। वीतरागी पुरुष के वचन ही प्रमाण होते हैं। वह साक्षात्कृत तत्त्वों का अर्थात् मोक्ष और उसके उपाय रूप धर्म का उपदेश देता है, जो आगम का रूप ले लेता है। जिस प्रकार धर्मादि अतीन्द्रिय पदार्थों का साक्षात्कार किसी ऋषभादि तीर्थंकर या बुद्ध ने किया, केवलज्ञान या बोधि के प्राप्त होने पर कोई भी साधक उनको प्रत्यक्ष कर सकता है। बौद्ध और जैन परम्परा में सर्वज्ञता विषयक विचार का अलग-अलग विवेचन निम्नांकित है :
बौद्ध दर्शन में सर्वज्ञता : बौद्ध दर्शन में सर्वज्ञता को अपेक्षा धर्मज्ञता की स्थापना की गयी है। बौद्ध दार्शनिकों की मान्यता है कि बुद्धाचार्य आर्यसत्य के साक्षात्कर्ता होते हैं और इस चतुरार्यधर्म के विषय में वे ही प्रमाण होते हैं । बुद्ध अविद्या और तृष्णा से युक्त जीवों को सांसारिक दुःखों से मुक्त होने के लिए करुणापूर्वक धर्म का उपदेश देते हैं । धर्मकीति का यह भी मत है कि "पुरुष संसार के समस्त पदार्थों को जाने या नहीं, इस निरर्थक बात से हमें कोई मतलब नहीं है । मोक्षमार्ग (धर्म ) में उपयोगी ज्ञान का हमें विचार करना चाहिए । अर्थात्-वह धर्मज्ञ है या नहीं ? यदि कोई ( मोक्ष मार्ग में अनुपयोगी ) जगत् के कीड़े-मकोड़ों की संख्या को जानता है तो उससे हमें क्या लाभ ? अर्थात् धर्म से उसका कोई सम्बन्ध नहीं है । जो हेय और उपादेय तथा उनके उपायों को जानता है वही हमारे लिए प्रमाण है, सबका जानने वाला नहीं।' वह दूर तक
१. न्यायविनिश्चय विवरण, (प्रस्तावना), पृ० २९ । २. तस्मात् प्रमाणं तयोर्वा चतुःसत्यप्रकाशनम् । -प्रमाणवार्तिक, १११४७ । ३. तस्मादनुष्ठेयगतं ज्ञानमस्य विचार्यताम् ।
कीटसंख्यापरिज्ञानं तस्य नः क्वोपयुज्यते ॥-वही, १।३२ । ४. हेयोपादेयतत्त्वस्य हान्युपायस्य वेदकः ।
यः प्रमाणमसाविष्टो न तु सर्वस्य वेदकः ।।-वही, ११३३ ।
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