________________
आत्म-स्वरूप-विमर्श : १२९
भारतीय दर्शन के इतिहास पर दृष्टिपात करने से ज्ञात होता है कि चार्वाक और मीमांसक दर्शनों के अलावा शेष सभी दर्शन सर्वज्ञता की न केवल सम्भावना करते हैं बल्कि प्रखर तर्कों द्वारा उसकी स्थापना भी करते हैं ।
चार्वाक दर्शन को मान्यता : इन्द्रिय प्रत्यक्षवादी होने के कारण चार्वाक किसी भी ऐसे पदार्थ की सत्ता नहीं मानते हैं जिसका इन्द्रियों से प्रत्यक्ष न होता हो । सर्वज्ञता अतीन्द्रिय पदार्थ है, उसका किसी को चक्षु इन्द्रिय से प्रत्यक्ष नहीं होता है । अतः इस दर्शन में सर्वज्ञता की सम्भावना नहीं है।'
मीमांसक दर्शन का दृष्टिकोण : मीमांसक दर्शन में वेद अपौरुषेय माना गया है । इस दर्शन की मान्यता है कि धर्म जैसे अतीन्द्रिय पदार्थों का ज्ञान वेद द्वारा ही संभव है। अतः कोई ऐसा पुरुष नहीं है, जो धर्मज्ञ हो । इसका कारण यह बतलाया गया है कि मनुष्य रागी, द्वेषी एवं अल्पज्ञ होते हैं। ऐसा कोई मनुष्य नहीं हो सकता है जो राग-द्वेष से रहित होकर सर्वज्ञ बन जाए और धर्मादि अतीन्द्रिय पदार्थों का साक्षात्कार कर सके । भट्ट कुमारिल के श्लोकवातिक पर ध्यान देने से यह स्पष्ट हो जाता है कि प्रारम्भ में उन्हें धर्मज्ञत्व का निराकरण करना ही अभीष्ट रहा, सर्वज्ञता का नहीं। बाद में उन्होंने सर्वज्ञता का भी खण्डन प्रबल युक्तियों से किया है । ये युक्तियाँ मीमांसाश्लोकवार्तिक के अलावा पूर्व पक्ष के रूप में जैन-बौद्ध दर्शन शास्त्रों में भी उपलब्ध होती हैं। निष्कर्ष रूप में कहा जा सकता है कि मीमांसा दर्शन में धर्मज्ञ और सर्वज्ञ दोषों का खण्डन किया गया है । पं० सुखलाल संघवी का भी यही मत है।'
१. अष्टसहस्री, पृ० ३५-३६ । २. (क) चोदनालक्षणो धर्मः।-जैमिनीसूत्र, १।१।२। (ख) शा० भा०, ११११५ ३. जैनद्रव्यसंग्रह, पृ० २ पर उद्धृव का रिका । ४. धर्मज्ञत्वनिषेधश्च केवलोऽत्रापि युज्यते । सर्वमन्यद्विजानंस्तु पुरुषः केन वार्यते ॥ यदि षड्भिः प्रमाणः स्यात् सर्वज्ञः केन वार्यते । एकेन तु प्रमाणेन सर्वज्ञो येन कल्प्यते ।। नूनं स चक्षुषा सर्वान् रसादीन् प्रतिपद्यते ।
-न्यायविनिश्चय विवरण, (प्रस्तावना), पृ० २८, पर उद्धृत । ५. मीमांसाश्लोकवार्तिक, २ कारिका ११०-१४३ । ६. प्रमेयकमलमार्तण्ड, पृ० २४७-२५४ । ७. तत्त्वसंग्रह, का० ३१२४-३२४६ । ८. दर्शन और चिन्तन, पृ० १२८ ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org