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१२८ : जैन-दर्शन में आत्म-विचार
संसारी जीव के व्यवहार नय की अपेक्षा से होते हैं, शुद्ध निश्चय नय की अपेक्षा से नहीं। मुक्त जीव में एक भी अशुद्ध पारिणामिक भाव नहीं होता है।' वीरसेन ने भी कहा है कि जीवत्व पारिणामिक भाव (अशुद्ध पारिणामिक भाव) प्राणों को धारण करने की अपेक्षा होने वाला अयोगी के अन्तिम समय से आगे नहीं पाया जाता है क्योंकि सिद्धों में कारणभूत अष्ट कर्मों का अभाव होता है। । उपर्युक्त पाँच भावों में से औदयिक भाव बन्ध का कारण है और औपशमिक, क्षायिक और क्षायोपशमिक भाव आत्मा के मोक्ष के कारण । पारिणामिक भाव बन्ध और मोक्षा दोनों का कारण नहीं है । (ख) जैन दर्शन में आत्मा का स्वरूप सर्वज्ञता में पर्यवसित है :
जैन दर्शन के अनुसार आत्मा ज्ञान स्वभाव वाला है । ज्ञ-स्वभाव वाला होने से समस्त पदार्थों को जानने की उसमें स्वाभाविक शक्ति होती है। लेकिन अनादि काल से आत्मा राग-द्वेष और ज्ञानावरणादि कर्मों के आवरण से मुक्त होने के कारण उसकी सकल पदार्थों को जानने की शक्ति आवृत हो जाती है । लेकिन जब कोई साधक तप और ध्यान के द्वारा इन आगन्तुक दोषों और आवरणों का समूल क्षय कर देता है तो तपे हुए सोने की तरह आत्मा का स्वाभाविक स्वरूप चमकने लगता है। इस अवस्था में उसे अपने स्वाभाविक स्वरूप अनन्तज्ञान की प्राप्ति हो जाती है। इस अनन्तज्ञान को जैनदर्शन में केवलज्ञान कहा गया है । केवलज्ञान त्रिकालवर्ती तथा तीन लोक के समस्त द्रव्यों और उनकी सूक्ष्म-स्थूल, भूतकालीन, भावी और वर्तमान काल सम्बन्धी समस्त पर्यायों को एक साथ युगपद् जानता है । केवलज्ञान से युक्त आत्मा को केवली एवं सर्वज्ञ कहते हैं । इस प्रकार जैन-चिन्तकों ने आरम्भ से आत्मा के स्वरूप को सर्वज्ञता में पर्यवसित माना है । सर्वज्ञता के विषय में जैन दृष्टिकोण को विस्तृत रूप से प्रस्तुत करने के पूर्व भारतीय दर्शन में उपलब्ध सर्वज्ञता सम्बन्धी मान्यताओं का संक्षिप्त विवेचन प्रस्तुत करना आवश्यक है । १. द्रव्यसंग्रह टीका, १३ । २. धवला, १४।५।६।१६ । ३. वही, ७।२।११७ । ४. (क) तत्त्वार्थसूत्र, १।२९। सर्वार्थसिद्धि टीका, ११२९ । तत्त्वार्थवार्तिक,
१।२९।९। (ख) ज्ञो ज्ञेये कथमज्ञः स्यादसति प्रतिबन्धने । दाह्येऽग्निर्दाहको न स्यादसतिः प्रतिबन्धने ।-अष्टसहस्री, पृ० ५० ।
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