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आत्म-स्वरूप-विमर्शं : १२७ का स्वरूप उपर्युक्त बतलाया है ।" पारिणामिक भाव की विशेषता है कि यह अनादि, अनन्त, निरुपाधि, स्वाभाविक और ज्ञायिक होता है ।
जीवत्व, भव्यत्व और अभव्यत्व - ये तीन भाव आत्मा के असाधारण पारिनामिक भाव हैं क्योंकि ये भाव अन्य किसी भी द्रव्य में नहीं होते हैं । उपर्युक्त तीनों भावों को दो भावों में विभाजित किया गया है - ( १ ) शुद्ध पारिणामिक भाव और ( २ ) अशुद्ध पारिणामिक भाव ।
शुद्ध पारिणामिक भाव : शुद्ध द्रव्याथिक नय की अपेक्षा से शुद्ध पारिनामिक भाव एक जीवत्व ही है, क्योंकि यह शुद्ध आत्मद्रव्य का चैतन्य रूप परिणाम है । पूज्यपाद ने जीवत्व का अर्थ चैतन्य किया है, इससे भी यही फलित होता है कि जीवत्व भाव शुद्ध आत्मा का परिणाम है । ४ अमृतचन्द्रसूरि" ने भी जीवत्व शक्ति का स्वरूप यही किया है । यह शुद्ध पारिणामिक भाव अविनाशी है और यह मुक्त जीव में पाया जाता है ।
अशुद्ध पारिणामिक भाव : अशुद्ध पारिणामिक भाव पर्यायजन्य (आश्रित ) होने के कारण विनाशशील होता है । पर्यायार्थिक नय की अपेक्षा से अशुद्ध पारिणामिक भाव तीन प्रकार के होते हैं— जीवत्व, भव्यत्व और अभव्यत्व । जीवत्व की व्युत्पत्ति " दश प्रकार के प्राणों से जीता है, जीता था और जीयेगा " इस प्रकार करने पर जीवत्व कर्म जनित दश प्रकार के यह अशुद्ध पारिणामिक भाव कहलाता है । तीनों अशुद्ध पारिणामिक भाव
प्राणों का रूप होने से
सभावियो होदि परिणामो ॥ - गोम्मटसार
१. ( क ) कारणणिरवेक्खभवो
( कर्मकाण्ड ), ८१५ ।
(ख) कम्मजभावातीदं जाणगभावं विसेस आहारं ।
तं परिणामी जीवो अचेयणं पहुदि इयराणं ॥ - नयचक्र, ३७४ | २. पंचास्तिकाय, तत्त्वदीपिका, ५८ ।
३. ( क ) अथवा, चैतन्यं जीवशब्देनाभिधीयते
तच्चानादिद्रव्यभवननिमित्तत्वात्
पारिणामिकम् ।—–तत्त्वार्थवार्तिक, २|७|६ ।
(ख) तथाहि ", तत्र शुद्धचैतन्यरूपजीवत्वमविनश्वरत्वेन शुद्धद्रव्याश्रितत्वाच्छूद्रद्रव्यार्थिकसंज्ञः शुद्धपारिणामिकभावो
भव्यते । द्रव्यसंग्रह,
१३ ।
४.
(क) सर्वार्थसिद्धि, २|७ |
५. आत्मद्रव्य हेतुभूतचैतन्यमात्रभावधारणलक्षणा आत्मख्याति टीका, परिशिष्ट, शक्ति १ ।
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'जीवत्वशक्तिः । समयसार,
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