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१२६ : जैनदर्शन में आत्म- विचार
दर्शन, अवधि ये तीन दर्शन, दान, लाभ, भोग, उपभोग और वीर्य रूप पाँच लब्धियों, सम्यक्त्व, चारित्र और संयमासंयम ।
औदयिक भाव : मन, वचन और काय की विभिन्न क्रियाओं के करने से शुभ - अशुभ कर्मों का संचय आत्म प्रदेशों में होता रहता है । यह कर्मों की सत्त्व अवस्था कहलाती है । जब ये सत्त्व कर्म पक कर द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की अपेक्षा से जीव को अपना रस (फल) प्रदान करने लगते हैं तो यह उनको उदय अवस्था कहलाती है । २ कर्मों के उदय होने पर आत्मा की स्वाभाविक शक्ति आवृत हो जाती है और उसके परिणाम कर्म की प्रकृति की भाँति हो जाते हैं । अतः कर्मों के उदय से होने वाला आत्मा का भाव औदयिक भाव कहलाता है । 3
आगमों में औदयिक भाव के इक्कीस भेद बतलाये गये हैं: नरकादि चार गति, क्रोधादि चार कषाय, स्त्री आदि तीन लिंग (वेद), मिथ्या दर्शन, अज्ञान, असंयम, असिद्धत्व और कृष्णादि छह लेश्याएँ । इनका विस्तृत विवेचन आगे करेंगे । औदयिक भाव जीव का पराभव करते हैं इसलिए यह बंध का कारण है ।
उपर्युक्त औपशमिकादि चारों भाव कर्मजन्य हैं ।
पारिणामिक भाव : आत्मा का पारिणामिक भाव ही वह भाव है जो आत्मा को जड़ (अजीव ) द्रव्यों से अलग करता है । यह आत्मा का स्वाभाविक परिनाम है क्योंकि औपशमिकादि भाव कर्मों के उपशम, क्षय, क्षयोपशम और उदय से होते हैं किन्तु पारिणामिक भाव कर्मजन्य नहीं है | पंचाध्यायी में कहा भी है—''कर्मों के उदय उपशमादि चारों अपेक्षाओं से रहित केवल आत्मद्रव्य स्वरूप वाला पारिणामिक भाव होता है । "५ पं० राजमल्ल ने पारिनामिक भाव की उपर्युक्त परिभाषा बतला कर पूज्यपाद और भट्टाकलंकदेव का अनुकरण हो किया है । गोम्मटसार कर्मकाण्ड, धवलादि में पारिणामिक भाव
१. तत्त्वार्थ सूत्र, २।५ । (विस्तृत विवेचन विभिन्न अध्यायों में किया जा चुका है ) २. (क) द्रव्यादिनिमित्तवशात् कर्मणां फलप्राप्तिरुदयः । सर्वार्थसिद्धि, २ १ । (ख) गोम्मटसार ( जीवकाण्ड) जीवतत्त्व प्रदीपिका, ८ ।
३. (क) तत्त्वार्थवार्तिक, २।१।६ ।
(ख) कर्मणामुदयादुत्पन्नो गुणः औदयिक: । - धवला १।१।११८
४. ( क ) सर्वार्थसिद्धि, २१७ ।
(ख) तत्त्वार्थ वार्तिक, २।७।२ ।
३५. पंचाध्यायी, उत्तरार्ष, कारिका ९७१ ।
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