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१२४ : जैनदर्शन में आत्म-विचार
आत्मा के भाव : उमास्वामी ने औपशमिक, क्षायिक, मिश्र, औदयिक और पारिणामिक इन पांच भावों को आत्मा का स्वतत्त्व कहा है। आचार्य पूज्यपाद के शब्दों में ये भाव आत्मा के असाधारण हैं इसलिए ये स्वतत्त्व कहलाते हैं। लेकिन इस कथन का तात्पर्य यह नहीं है कि औपशमिक आदि भाव आत्मा के स्वभाव रूप हैं। यहाँ असाधारण या स्वतत्त्व का तात्पर्य केवल इतना है कि ये भाव आत्म-पूज्य के अलावा अन्य द्रव्यों में नहीं होते हैं ।
१-औपशमिक भाव : कर्मों का उदय कुछ समय के लिए रोक देना या उनका प्रभाव शान्त हो जाना उपशम कहलाता है। पूज्यपादाचार्य ने उदाहरण देते हुए कहा है कि जैसे फिटकिरी को (कतक) मैले पानी में डालने से पानी का कीचड़ नीचे बैठ जाता है लेकिन नष्ट नहीं होता है उसी प्रकार कर्म के विपक्षी कारणों के संयोग से कर्म के अपने प्रभाव से आत्मा को प्रभावित करना रुक जाना उपशम कहलाता है और कर्मों के उपशम से होने वाला भाव औपशमिक कहलाता है । यह भाव जीव को उसी समय तक होता है जब तक उसके कर्मों का पुनः उदय नहीं हो जाता है। उमास्वामी ने औपशमिक भाव के दो भेदों का उल्लेख किया है : औपथमिक सम्यक्त्व और औपशमिक चारित्र । षट्खडागम, धवलादि ग्रन्थों में औपशमिक भाव के विस्तृत भेदों का विवेचन किया गया है।
क्षायिक भाव : क्षय का अर्थ है नष्ट होना । अतः ज्ञानावरणादि समस्त कर्मों का सदैव के लिए आत्मा से अलग हो जाना (कभी भी आत्मा की स्वाभाविक
(ख) प्रमेयकमलमार्तण्ड (प्रभाचन्द्र), पृ० २६६-२८५ । (ग) षड्दर्शनसमुच्चय, पृ० १७१ । (घ) प्रमेयरत्नमाला (अनन्तवीर्य) पृ० २११०, पृ० १०४-१२० ।
(च) स्याद्वादमंजरी, कारिका ६ । १. तत्त्वार्थसूत्र, २।१। २. सर्वार्थसिद्धि, २१, १० १४९ । ३. विस्तृत विवेचन के लिए द्रष्टव्य-तत्त्वार्थसूत्र पर टीकाएँ । ४. अध्यात्मकमलमार्तण्ड, ३३८ । +-अक्ला, रासस ५. सर्वार्थसिद्धि, २।१। ६७. तत्त्वार्थसूत्र, २।३ । ७ (क) षट्षण्डागम, १४।५।६।१७ । (ख) वही, ५।१७।
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