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आत्म-स्वरूप-विमर्श : १२३
आत्मा प्रभु है : आत्मा का स्वरूप-विमर्श करते हुए जैन दार्शनिकों ने एक यह भी बतलाया है कि सभी आत्मा प्रभु और स्वयंभू हैं, वे किसी के वशीभूत नहीं है । प्रत्येक आत्मा अपने शरीर का स्वयं मालिक है । दूसरे शब्दों में सभी जीव अपने अच्छे-बुरे कर्मों के लिए स्वयं उत्तरदायी हैं। जीव शुभ-कर्म पूर्वक अपना पूर्ण विकास करके अनन्त चतुष्टय को प्राप्त कर सकता है अथवा दुष्कर्मोको करके अभव्य ही बना रह सकता है। प्रभु प्रवृत्ति के द्वारा ऐश्वर्यशाली बनना, शुभ पदार्थों को भोगना, अनन्त सुख का अनुभव करना अथवा दुष्प्रवृत्ति करते हुए दीन बनकर अनन्त दुःखों को भोगना, जन्म-मरण के चक्र में घूमते रहने के लिए जीव में समर्थता होती है। अमृतचन्द्राचार्य ने पंचास्तिकाय की टीका में कहा भी है-"आत्मा निश्चय नय की अपेक्षा से भाव कर्मों का और व्यवहारनय की अपेक्षा से द्रव्य कर्म आस्रव, बंध, संवर, निर्जरा और मोक्ष प्राप्त करने में स्वयं ईश (समर्थ) होने से प्रभु है ।" आचार्य कुन्दकुन्द ने जीव के प्रभुत्व शक्ति का विवेचन करते हुए कहा है :
कर्म संयुक्त होने की अपेक्षा जीव के प्रभुत्व गुण के विषय में कहा है कि अनादि काल से कर्म-संयुक्त जीव भाव और द्रव्य कर्मों के उदय से शुभाशुभ कर्मों का कर्ता और भोक्ता होता हुआ सांत अथवा अनन्त चतुर्गति रूप संसार में मोह से आच्छादित होकर भ्रमण करता रहता है। दूसरी गाथा में कर्म वियुक्त होने की अपेक्षा जीव के प्रभुत्व गुण की व्याख्या में कहा है कि जिनेन्द्रदेव द्वारा बतलाये गये मार्ग पर चलकर जीव समस्त कर्मों को उपशम और क्षीण करके विपरीत अभिप्राय को नष्ट करके प्रभुत्व-शक्तियुक्त होकर ज्ञान मार्ग में विचरण करता हुआ आत्मीय स्वरूप मोक्ष मार्ग को प्राप्त करता है ।। उपर्युक्त कथन से स्पष्ट है कि आत्मा प्रभु है ।
आत्मा के इस विशेषण के द्वारा इस मत का खण्डन किया गया है कि जीव ईश्वर की प्रेरणा से शुभ-अशुभ कर्म करता है और ईश्वर ही उसे बंधन में बांधता और मुक्त करता है ।" १. पंचास्तिकाय, २७ । २. पंचास्तिकाय तत्त्वदीपिका, २७ । ३. वही, गा० ६९-७० । ४. पंचास्तिकाय, तात्पर्यवृत्ति टीका, गा० ७० । ५. ईश्वरप्रेरितो गच्छेत् स्वर्ग वा श्वभ्रमेव वा।
अनयोजन्तुरनीशोऽयमात्मनः सुखदुःखयोः ॥-स्याद्वादमंजरी, का० ६ । . ईश्वर कर्तृत्व खण्डन के लिए द्रष्टव्य-न्यायकुमुदचन्द्र, पृ० १०१-१४ ।
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