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१२२ : जैनदर्शन में आत्म-विचार
सांख्य दार्शनिकों का मन्तव्य है कि आत्मा को भोक्ता कहने का तात्पर्य अनुभव करना है। अतः आत्मा विषयों का साक्षात् भोक्ता नहीं बल्कि उपचार से भोक्ता है।' उपचार से भोक्ता कहने का तात्पर्य यह है कि यद्यपि पुरुष भोक्ता नहीं है लेकिन बुद्धि में झलकने वाले सुख-दुःख की छाया 'पुरुष' में पड़ने लगती है, यही उसका भोग कहलाता है और इसी भोग के कारण पुरुष भोक्ता कहलाता है। जिस प्रकार स्फटिक-मणि लाल फूल के संसर्ग के कारण लाल हो जाती है उसी प्रकार निर्मल स्वच्छ पुरुष प्रकृति के सम्बन्ध से सुख-दुःखादि का भोक्ता बन जाता है । बुद्धि रूपी दर्पण में प्रतिबिम्बित पदार्थों का द्वितीय दर्पण पुरुष में झलकना ही पुरुष का भोक्तत्व है। इस भोक्तृत्व के अतिरिक्त पुरुष में अन्य किसी प्रकार का भोक्तृत्व नहीं है । अतः वास्तव में प्रकृति ही कर्ता-भोक्ता है, पुरुष तो उपचार से भोक्ता है ।
जैन दार्शनिक सांख्यों के उपयुक्त मत से सहमत नहीं हैं। जैन दर्शन में उपचार से आत्मा को भोक्ता न मान कर वास्तविक रूप से भोक्ता स्वीकार किया है। हरिभद्र ने शास्त्रवार्तासमुच्चय में कहा है कि पुरुष अमूर्त है इसलिए वह प्रतिबिम्बित नहीं हो सकता है। अतः सांख्यों का यह कथन ठीक नहीं है कि पुरुष (आत्मा) उपचार से भोक्ता है ।
दूसरी बात यह है कि यदि संसारी पुरुष का प्रतिबिम्ब बुद्धि में पड़ने से पुरुष को भोक्ता माना जाता है तो मुक्त पुरुष को भी भोक्ता मानना पड़ेगा क्योंकि उसका प्रतिबिम्ब भी बुद्धि में पड़ने से सुख-दुःख का अनुभव करने वाला हो सकता है । यदि सांख्य दार्शनिक मुक्त पुरुष को भोक्ता नहीं स्वीकार करें तो इसका तात्पर्य होगा कि पुरुष ने अपने भोक्तृत्व स्वभाव को छोड़ दिया है। अतः ऐसा मानने से आत्मा परिणामी तत्त्व सिद्ध हो जाएगा। मल्लिषेण ने उपयुक्त तर्कों के अतिरिक्त कहा है कि औपचारिक रूप से भोक्ता मानने पर सुख-दुःख का अनुभव निराधार हो जाएगा। अतः आत्मा वास्तविक रूप से भोक्ता है, औपचारिक रूप से नहीं। १. षड्दर्शनसमुच्चय टीका, पृ० १५०, स्याद्वादमंजरी पृ० १३५ । २. न्यायकुमुदचन्द्र, पृ० १९० ; षड्दर्शनसमुच्चय टीका, १५१ । ३. प्रतिबिम्बोदयोऽप्यस्य नामूर्तत्वेन युज्यते । ___ मुक्तेरतिप्रसंगाच्च न वै भोगः कदाचन ।-शास्त्रवार्तासमुच्चय तीसरा स्तवक,
कारिका, २२३ । ४. वही, तीसरा स्तवक, कारिका, २२४ । ५. स्याद्वादमंजरी,.१५ । .... .. .....
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