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आत्म-स्वरूप-विमर्श : १२१
दुःखादि कारण पुण्य-पाप कर्मों का अभाव होता है। कारण कार्य सिद्धान्त के अनुसार कारण के बिना कार्य नहीं हो सकता है ।
जैन : जैन दार्शनिक प्रत्युत्तर में कहते हैं कि आपके उपयुक्त कथन से स्पष्ट है कि संसारी जीव सुख-दुःखादि के कारणभूत शुभ-अशुभ कर्मों को अवश्य करते है क्योंकि वह उनका भोक्ता है ।
सांख्य : आत्मा सुखादि का भोक्ता तो है क्योंकि उसके भोर्तृत्व की सभी को अनुभूति होती है।
जैन : जैन दार्शनिक कहते हैं कि जिस प्रकार आत्मा के भोक्तृत्व की सभी को अनुभूति होती है उसी प्रकार 'मैं शब्द सुनने वाला हूँ', 'गन्ध सूंघने वाला हूँ' इत्यादि वाक्यों से आत्मा के कर्तृत्व की सभी की प्रतीति होती है इसलिए भोक्ता की तरह पुरुष कर्ता भी है। यदि सांख्य दार्शनिक यह नहीं कह सकते हैं कि उपयुक्त कर्तृत्व की प्रतीति प्रकृति के परिणाम अहंकार के कारण होती है । ऐसा मानने पर भोक्तृत्व प्रतीति भी प्रकृति में माननी पड़ेगी।' आत्मा भोक्ता की तरह कर्ता है, यह सिद्ध हो जाता है ।
आत्मा भोक्ता है : आत्मा शुभ-अशुभ कर्मों का कर्ता है। सभी भारतीय दार्शनिकों की तरह जैन दार्शनिक भी आत्मा को उन कर्म फलों का भोक्ता मानते हैं। यहाँ ध्यातव्य बात यह है कि सांख्य दार्शनिकों की तरह जैन दार्शनिक मात्र उपचार से कर्म फलों का भोक्ता२ न मानकर वास्तविक रूप से भोक्ता मानते हैं। जिस प्रकार व्यावहारिक दृष्टि से आत्मा पुद्गल कर्मों का कर्ता है उसी प्रकार वह व्यावहारिक दृष्टि से पौद्गलिक कर्मजन्य फल सुख-दुःख एवं बाह्य पदार्थों का भोक्ता है। अशुद्ध निश्चय नय की अपेक्षा से चेतन के विकारभाव राग-द्वेषादि का तथा शुद्ध निश्चय नय की अपेक्षा से शुद्ध चेतन भावों का भोक्ता है ।" आदि पुराण में कहा गया है कि आत्मा परलोक सम्बन्धी पुण्य-पाप जन्य फलों का भोक्ता है। स्वामी कार्तिकेय ने भी आत्मा को कर्म विपाक जन्य सुख-दुःख का भोक्ता बतलाया है।" १. तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक, २४६ । २. एतेन विशेषणाद-उपचरितवृत्त्या भोक्तारं चात्मानं मन्यमानानां सांख्यानां
निरासः । षट्दर्शनसमुच्चय टीका, कारिका ४९ । ३. तथा स्वकृतस्य कर्मणो यत्फलं सुखादिकं तस्य साक्षाद् भोक्ता च । -वही। ४. द्रव्यसंग्रह, गा० ९ एवं इसकी टीका । पंचास्तिकाय, तत्त्वदीपिकाटीका,
६८। पुरुषार्थसिद्धयुपाय १०।। ५. जीवो वि हवह भुक्ता कम्मफलं सो वि भुंजदे जहमा।
कम्म विवायं विविहं सो चिय भुंजेदि संसारे । कार्तिकेयानुप्रेक्षा, ११८९ ।
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