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________________ १२० : जैनदर्शन में आत्म- विचार होता है वह कर्ता भी होता है ।" प्रभाचन्द्र ने भी कहा है कि 'आत्मा को कर्ता मानने से उसके भोक्ता मानने में विरोध आता है ।" गुणरत्नाचार्य ने कहा है कि जो कर्मफल भोगता है वह कर्ता होता है, जैसे किसान अपनी खेती का भोक्ता होता है इसलिए वही फसल को काटता है । यदि आत्मा अकर्ता हो कर प्रकृति के द्वारा किये गये कर्मों का फल भोगता है तो किये गये कार्यों के फल का विनाश ओर न किये गये कार्यों के फल प्राप्ति होने का दोष आयेगा जो अनुचित एवं अतार्किक है ।" पुरुष को अकर्ता मानने से वह आकाश के फूल की तरह असत् (अवस्तु) बन जाएगा । जिस प्रकार संसारावस्था में पुरुष अकर्ता होकर भोक्ता स्वीकार किया जाता है उसी प्रकार शुद्ध चेतन स्वरूप मुक्तात्मा को भी भोक्ता मानना चाहिए जो सांख्य दर्शन के विरुद्ध है । यदि सांख्य दार्शनिक यह तर्क प्रस्तुत करें कि मुक्तात्मा अकर्ता होने पर भी कर्मफलों का उपभोग नहीं करती है, तब कहा जा सकता है कि प्रकृति भी कर्मों का कर्ता नहीं है क्योंकि मुक्तात्मा की तरह वह कर्मों का उपभोग नहीं करती है । सांख्य दार्शनिक कहते हैं कि यदि द्रष्टा भोक्ता आत्मा को जैन दार्शनिक कर्ता मानते हैं तो मुक्तात्मा को भी कर्ता मानना पड़ेगा और ऐसा मानने से उस आत्मा को कृतकृत्य कहना व्यर्थ हो जाएगा । अतः आत्मा को कर्ता मानना सदोष है । जैन दार्शनिक उपर्युक्त शंका का समाधान करते हुए कहते हैं कि मुक्त जीव को अकर्ता हम मानते ही नहीं हैं । क्योंकि मुक्त जीव वस्तु सत् हैं इसलिए उनमें सुख, चैतन्य, सत्ता, वीर्य और क्षायिक दर्शन रूप अर्थ क्रिया करते रहते हैं । यदि मुक्त जीव को अर्थक्रिया-कारी रूप कर्ता न माना जाएगा तो वे असत् हो जाएँगे । सांख्य: मुक्त जीव सुख-दुःखादि का कर्ता नहीं है क्योंकि उसमें सुख१. नयचक्रवृत्ति, १२४; विद्यानन्दि आप्तपरीक्षा ८१ । २. न्यायकुमुदचन्द्र, पृ० ८१८ । ३. षट्दर्शनसमुच्चय टीका, पृ० २३६ । ४. तत्त्वार्थवार्तिक, २1१०1१ ; षट्दर्शनसमुच्चय टीका, २३६ ॥ न्याय कुमुद चन्द्र, पृ० ८१९ । ५. वही, पृ० ८१९; आप्त- परीक्षा, पृ० ११४ । ६. न्यायकुमुदचन्द्र, पृ० ८१९ । ७. तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक, २४६ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002140
Book TitleJain Dharma me Atmavichar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLalchand Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1984
Total Pages336
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Soul, & Spiritual
File Size13 MB
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