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... आत्म-स्वरूप-विमर्श : ११९
करती है, इसलिए वह कर्ता है। अन्य दार्शनिकों की तरह जैन दार्शनिकों ने भी सांख्यों के इस सिद्धान्त की समीक्षा करते हुए कहा है कि यदि पुरुष (आत्मा) अकर्ता है और प्रकृति द्वारा किये गये कर्मों का भोक्ता है तब पुरुष की परिकल्पना ही व्यर्थ है।' दूसरी बात यह है कि प्रकृति अचेतन है, इसलिए जिस प्रकार अचेतन घटपटादि पदार्थ पुण्य-पाप के कर्ता नहीं हैं उसी प्रकार अचेतन प्रकृति भी कर्ता नहीं हो सकती है। यदि अचेतन प्रकृति को कर्ता माना जायेगा तो घटपटादि पदार्थों को भी कर्ता मानना पड़ेगा क्योंकि वे भी प्रधान की तरह अचेतन हैं । इसलिए सिद्ध है कि प्रकृति कर्ता नहीं है ।
आत्मा प्रकृति के द्वारा किये गये कार्यों का उपभोग करता है, ऐसा मानना भी ठीक नहीं है, क्योंकि व्यवहार में यही देखा जाता है कि जो काम करता है वही उसके फल का भोग करता है इसलिए यदि प्रकृति कर्ता है तो उसे ही भोक्ता मानना चाहिए। यदि एक के द्वारा किये कार्यों का भोग दूसरा करेगा तब तो एक के भोजन करने से दूसरे को तृप्त होना चाहिए जो लोक व्यवहार के विरुद्ध है।
अकलंक देव ने भी कहा है कि प्रकृति के द्वारा किये गये कार्यों से पुरुष को मुक्ति नहीं हो सकती है। सांख्यों ने पुरुष को भोक्ता माना है, जो भोग क्रिया करता है, भोक्ता कहलाता है। यदि पुरुष भोग क्रिया करता है इसलिए भोक्ता कहलाता है तब वह अन्य क्रियाओं का कर्ता क्यों नहीं हो सकता है। आचार्य देवसेन ने कहा भी है : ‘देहधारी जीव भोक्ता होता है और जो भोक्ता
१. श्रावकाचार (अमितगति), ४।३५ । २. अचेतनस्य पुण्यपापविषयकर्तृतानुपपत्तेर्घटादिवत् ।-तत्त्वार्थवार्तिक,
२।१०।१। ३. तत्त्वार्थश्लोकवातिक, २४६ । ४. प्रधानेन कृते धर्मे, मोक्षभागी न चेतनः । परेण विहिते भोगे तृप्तिभागी कुतः
परः॥ उक्त्वा स्वयमकर्तारं, भोक्तारं चेतनं पुनः । भाषमाणस्य सांख्यस्य न ज्ञानं विद्यते स्फुटम् ॥
-श्रावकाचार (अमितगति), ४१३४-३८।। , ५. तत्त्वार्थवार्तिक, २।१०।१ । ६. भुजि क्रिया कुर्वन् भोक्ता"" । न्यायकुमुदचन्द्र, पृ० ८१८ ।....
अथ भुजिक्रियां करोति..." तदापरामिः क्रियाभिः किमपराद्धम् । .. समुच्चयटीका कारिका ४९ ।
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