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________________ ११८ : जैनदर्शन में आत्म-विचार जीव स्वयं कर्ता एवं स्वयं ही उसका भोक्ता है।'' आत्मा को पर पदार्थ का कर्ता मानने वालों को कुन्दकुन्दाचार्य ने जैन सिद्धान्तों से अनभिज्ञ एवं अन्य सिद्धान्तों वाला कहा है । __पारमार्थिक रूप से आत्मा निज भावों का कर्ता है : व्यवहार नय की अपेक्षा से ही आत्म परिणामों के निमित्त से कर्मों के करने के कारण आत्मा कर्ता कहलाता है। किन्तु निश्चय नय की अपेक्षा कोई भी द्रव्य दूसरे के परिणामों को नहीं कर सकता है इसलिए आत्मा पुद्गल कर्मों का कर्ता नहीं है । बल्कि अपने परिणामों का ही कर्ता है । कहा भी है : 'अपने भाव को करता हुआ आत्मा अपने भाव का कर्ता हैं, पुद्गल रूप द्रव्य कर्मों का नहीं।" प्रवचनसार की टीका में भी कहा है-'आत्मा अपने परिणाम से अभिन्न होने के कारण वास्तव में अपने परिणाम रूप भाव कर्मों का ही कर्ता है, पुद्गल परिणामात्मक द्रव्य कर्म का नहीं।' ६ अमृतचन्द्र सूरि ने समयसार की टीका में उदाहरण दे कर उपर्युक्त कथन को स्पष्ट करते हुए कहा है कि जिस प्रकार कुम्भकार घट बनाते हुए घट रूप से परिणमित नहीं होने के कारण पारमार्थिक रूप से उसका कर्ता नहीं कहलाता है, उसी प्रकार आत्मा ज्ञानावरणादि रूप परिणमित न होने के कारण (अर्थात्-आत्मा अपना स्वभाव-द्रव्य और गुण छोड़कर ज्ञानावरणादि रूप पुद्गल द्रव्य वाला न होने के कारण) आत्मा भी परमार्थ रूप से उनका कर्ता नहीं हो सकता है। अतः उपर्युक्त मन्तव्य से सिद्ध है कि आत्मा अपने परिणाम का कर्ता है, पुद्गल रूप कर्मों का नहीं। आत्मा के कर्तृत्व के विषय में सांख्य मत और उसकी समीक्षा : भारतीय दर्शन में आत्मा के कर्तत्व के विषय में सांख्य दर्शन विचित्र है। न्याय-वैशेषिक, मीमांसा, वेदान्त और जैन-दार्शनिकों के अतिरिक सांख्य-योग दार्शनिक आत्मा को अकर्ता मानते हैं । उनका मत है कि पुरुष अपरिणामी एवं नित्य है इसलिए वह कर्ता नहीं हो सकता है। पाप-पुण्य, शुभ-अशुभ कर्म प्रकृति ही १. पंचाध्यायी, पूर्वार्ष, श्लोक ५८०, ५८१ । योगसार (अमितगति), ४।१३ । २. समयसार, ८५, ११६-११७ । ३. पंचास्तिकाय, तत्त्वदीपिका टीका, २७ । . ४. कषायपाहुड़, १ पृ० ३१८ । ५. पंचास्तिकाय, ६१; प्रवचनसार ९२ । । ६. प्रवचनसार, ३० । समयसार, आत्मख्याति टीका ८६ ।। ७. वही, कलश ७५, ८३ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002140
Book TitleJain Dharma me Atmavichar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLalchand Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1984
Total Pages336
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Soul, & Spiritual
File Size13 MB
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