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आत्म-स्वरूप-विमर्श : ११७
आत्मा को पार
भाव कर्मों का कर्ता होने के कारण उपचार से द्रव्य कर्म का कर्ता कहलाता है ।" जिस प्रकार से लोक रूढ़ि है कि कुम्भकार घड़े का कर्ता एवं भोक्ता है उसी प्रकार रूढ़िवश आत्मा कर्मों का कर्ता एवं भोक्ता है । मार्थिक रूप से पुद्गल कर्मों का कर्ता मानना मिथ्या है । ३ यदि चेतन पदार्थ को अचेतन द्रव्य का कर्ता माना जाए तो चेतन और अचेतन में भेद करना असम्भव हो जाएगा । अतः जीव और पुद्गल में निमित्त-नैमित्तिक सम्बन्ध होने के कारण ही जीव ज्ञानावरणादि कर्मों का कर्ता उसी प्रकार माना जा सकता है जिस प्रकार से कुम्भकार घट का कर्ता कहलाता है । "
पारमार्थिक दृष्टि से आत्मा पुद्गल द्रव्य का कर्ता नहीं है : आत्मा को पर पदार्थों का कर्ता मानने वालों को कुन्दकुन्दाचार्य ने मिथ्या दृष्टि, अज्ञानी, मोही कहा है । कहा भी है कि 'जो यह मानता है कि मैं दूसरे जीवों को मारता हूँ और पर जीव मुझे मारते हैं, वह मूढ़ है, अज्ञानी है। जो यह मानता है कि मैं अपने द्वारा दूसरे जीवों को दुःखी-सुखी करता हूँ, वह मूढ़ है और अज्ञानी है । इसके विपरीत ज्ञानी है । क्यों कि सभी जीव कर्मोदय के द्वारा हो सुखी - दुःखी होते हैं । अमृतचन्द्र सूरि ने भी यही कहा है । / आत्मा ज्ञान स्वरूप है, स्वयं ज्ञान ही है, वह ज्ञान के अतिरिक्त अन्य कुछ नहीं । आत्मा कर्ता है, ऐसा मानना व्यवहारी जीवों का मोह है ।" अज्ञानान्धकार से युक्त आत्मा को जो कर्ता मानते हैं मोक्ष के इच्छुक होते हुए सामान्य लोगों की तरह उनकी भी मुक्ति नहीं हो सकती । जब आत्मा पुद्गल द्रव्य रूप मिथ्यात्वादि का भोक्ता ही नहीं है तब वह पुद्गल कर्म का कर्ता किस प्रकार हो सकता है । पंचाध्यायीकार ने भी कहा है कि निकृष्ट बुद्धि वाले, अन्य मिथ्या दृष्टि वाले यह मिथ्या कथन करते हैं कि जीव बन्ध को न होने वाला अन्य पदार्थ का कर्ता-भोक्ता है । यथा सातावेदनीयके उदय से प्राप्त होने वाला घर, धनधान्यादि और स्त्री-पुत्र आदि का
१. प्रवचनसार, तत्त्वदीपिका टीका २९ ।
२. समयसार, आत्मख्याति टीका, ८४ ।
३. समयसार ११९ ।
४. योगसार (अमितगति), २१३० ।
५. समयसार, आत्मख्याति टीका, २१४ ।
६. समयसार, २४७-२५८ ।
७. समयसार, आत्मस्याति टीका, ७९, कलश ५० ।
८. वही, ९७, कलश ६२ ।
९. वही, ३२०, कलश १९९ ।
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