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________________ ११६ : जैनदर्शन में आत्म-विचार . आत्मा कर्ता है : न्याय-वैशेषिक, मीमांसा एवं वेदान्त दार्शनिकों की तरह जैन दार्शनिकों ने भी आत्मा को शुभ-अशुभ, द्रव्य-भाव कमों का कर्ता माना है । परन्तु अन्य भारतीय दार्शनिकों की अपेक्षा जैन दार्शनिकों की यह विशेषता है कि वे अपने मूलभूत सिद्धान्त स्याद्वाद के अनुसार आत्मा को कथंचित् कर्ता और कथंचित् अकर्ता मानते हैं। आत्मा को कर्ता कहने का तात्पर्य है कि वह परिणमनशील है।' पंचास्तिकाय की तात्पर्यवृत्ति में भी कहा है कि "अशुद्ध निश्चय नय की दृष्टि से शुभाशुभ परिणामों का परिणमन होना ही आत्मा का कर्तृत्व है। जैन-दर्शन में नय शैली से आत्मा को कर्ता बतलाते हुए कहा गया है कि व्यवहार नय की अपेक्षा से आत्मा द्रव्य कर्म, नो-कर्म एवं घटपटादि पदार्थों का कर्ता है और अशुद्ध निश्चय नय की अपेक्षा से आत्मा भाव कर्म का कर्ता है । कहा भी है-'व्यवहारनय से जीव ज्ञानावरणादि कर्मों, औदारिकादि शरीर, आहारादि पर्याप्तियों के योग्य पुद्गल रूप नो-कर्मों और बाह्य पदार्थ घटपटादि का कर्ता है, किन्तु अशुद्ध निश्चय नय से राग द्वेषादि भाव कर्मों का तथा शुद्ध निश्चय नय से शुद्ध चेतन ज्ञान दर्शन स्वरूप शुद्ध भावों का कर्ता है। आचार्य कुन्दकुन्द के समयसार से भी उपर्युक्त कथन की पुष्टि होती है। स्वामी कातिकेय ने भी कहा है कि जीव कर्ता है क्योंकि कर्म, नोकर्म तथा अन्य समस्त कार्यों को करता है । द्रव्य, क्षेत्र, काल एवं भाव के अनुरूप सामग्री के अनुसार जीव संसार एवं मोक्ष स्वयं उपाजित करता है। उपचार से ही आत्मा पुद्गल कर्म का कर्ता है : आत्मा व्यवहार नय की अपेक्षा या उपचार से ही ज्ञानावरणादि कर्म का कर्ता है। समयसार में कहा है : 'कर्मबन्ध का निमित्त होने के कारण उपचार से कहा जाता है कि जीव ने कर्म किये हैं। उदाहरणार्थ-सेना युद्ध करती है किन्तु उपचार से कहा जाता कि राजा युद्ध करता है, उसी प्रकार आत्मा व्यवहार दृष्टि से ज्ञानावरणादि कर्मों का कर्ता कहलाता है। प्रवचनसार की टीका में भी कहा है-'मात्मा अपने १. यः परिणमति स कर्ता।-समयसार, आ० टीका गा० ८६, कलश ५१ । २. चूलिका, गा० ५७ । ३. द्रव्य संग्रह, टीका, ८; श्रावकाचार (वसुनन्दि), ३५ । ४. ववहारेण दु एवं करेदि घटपडरथाणि दव्वाणि । करणाणि य कम्माणि य णोकम्माणीह विविहाणि ।।-समयसार, ९८, अध्यात्मकमलमार्तण्ड, ३॥१३॥ ५. कार्तिकेयानुप्रेक्षा, १८८ ॥ ६. समयसार, १०४-७ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002140
Book TitleJain Dharma me Atmavichar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLalchand Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1984
Total Pages336
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Soul, & Spiritual
File Size13 MB
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