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________________ आत्म-स्वरूप-विमर्श : ११५ । यद्यपि स्वभाव से आत्मा अमूर्तिक है, लेकिन कर्म संयुक्त संसारी आत्मा एकान्त रूप से अमूर्तिक नहीं बल्कि कथंचित् अमूर्तिक है । आचार्य पूज्यपाद ने कहा भी है कि " आत्मा के अमूर्तत्व के विषय में अनेकान्त है । यह कोई एकान्त नहीं है कि आत्मा अमूर्तिक ही है । कर्म-बन्ध रूप पर्याय की अपेक्षा उससे युक्त होने के कारण कथंचित् मूर्त है और शुद्ध स्वरूप की अपेक्षा कथंचित् अमूर्त है ।" ससारी आत्मा अमूर्तिक नहीं है क्योंकि संसारी आत्मा कर्म से सम्बद्ध रहती है किन्तु जिस समय उसके समस्त कर्मों का क्षय हो जाता है उस समय मुक्त होने पर वह अमूर्त हो जाती है । अतः यह सिद्ध हो जाता है कि आत्मा सर्वथा अमूर्ति ही नहीं है, बल्कि कथंचित् मूर्तिक भी है । यदि आत्मा को आकाश की तरह अमूर्तिक माना जाये जो जिस प्रकार आकाश का कर्म-बन्ध नहीं होता है, उसी प्रकार से आत्मा का भी कर्मबन्ध नहीं होना चाहिए । अतः आत्मा सर्वथा मूर्ति नहीं है । यद्यपि आत्मा अनादि चैतन्य स्वरूप है तो भी अनादि कार्मण शरीर के साथ संयुक्त होने के कारण मूर्तिक भी है। मूर्तिक होते हुए भी अपने ज्ञानादि स्वभाव को न छोड़ने के कारण अमूर्तिक भी है। कहा भी है : "बन्ध की अपेक्षा आत्मा और कर्म एक हो जाने पर लक्षण की दृष्टि से दोनों में भेद है | अतः आत्मा ऐकान्तिक रूप से अमूर्तिक नहीं है । " अतः सिद्ध है कि निश्चय नय की अपेक्षा आत्मा अमूर्तिक है तथा व्यवहार नय की दृष्टि से अनादिकाल से दूध और पानी की तरह परस्पर आत्मा और कर्म के मिले रहने के . कारण आत्मा अमूर्ति भी है कहा भी है : "संसारी जीव मूर्त आठ कर्मों के द्वारा अनादिकालीन बन्धन से बद्ध है, इसलिए वह अमूर्त नहीं हो सकता है । इसी प्रकार विभिन्न जैन दार्शनिकों ने आत्मा को कथंचित् अमूर्त और कथंचित् मूर्त सिद्ध किया है । । ७ १. सर्वार्थसिद्धि, २७, तत्त्वार्थसार, ५।१६ । २. धवला, १३।५।३।१२ । कर्मबन्धव्यपगमव्यंजित सहजं स्पर्शादिशून्यात्मप्रदेशात्मिका अमूर्तत्वशक्तिः ।- समयसार, आत्मख्याति टीका शक्ति नंबर २० । ३. श्रावकाचार ( आशाधर ), ४।४४ । ४. तत्त्वार्थवार्तिक, २।७।२४ । ५. वही, २।७।२७, (अमितगति) श्रावकाचार, ४१४५ । ६. व्यवहारेण कर्मभिः सहैकत्वपरिणामान्मूर्तोऽपि निश्चयेन नीरूपस्वभावत्वान्नहि मूर्त: । पंचास्तिकाय, तत्त्वदीपिका टीका, २७ । ७. धवला, १३।५।५।६३ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002140
Book TitleJain Dharma me Atmavichar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLalchand Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1984
Total Pages336
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Soul, & Spiritual
File Size13 MB
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