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________________ ११४ : जैनदर्शन में आत्म-विचार प्रकार सोना अनादिकाल से किट्टकालिमा आदि से युक्त होता है उसी प्रकार संसारी जीव अनादिकाल से कर्म-संयुक्त होता है। कोई भी संसारी जीव ऐसा नहीं है जो कार्मण शरीर से रहित हो । आत्मा के कर्म-संयुक्तपने का विवेचन विस्तृत रूप से अगले अध्यायों में किया जायेगा। जीव कथंचित् शुद्ध एवं अशुद्ध है : आत्मा स्वभाव से शुद्ध स्वरूप है । लेकिन संसारी आत्मा को कम-संसर्ग के कारण कथंचित् शुद्ध और कथंचित् अशुद्ध मानना जैन दार्शनिकों की विशेषता है। जैन दार्शनिक शैव दर्शन के इस सिद्धान्त से सहमत नहीं हैं कि आत्मा सर्वथा शुद्ध रहता है। इसके विपरीत जैन दार्शनिक मानते हैं कि समस्त संसारी आत्मा अनादिकाल से कर्म के साथ उसी प्रकार संयुक्त हैं जिस प्रकार खान से निकाले गये सोने के साथ किट्टकालिमादि । इन्हीं कर्मों के संसर्ग के कारण आत्मा अच्छे-बुरे कर्म भोग कर विभिन्न पर्यायों, योनियों तथा गतियों में भ्रमण करता रहता है । आत्मा कर्मों का विनाश करके मुक्त हो जाती है । अतः निष्कर्ष यह है कि व्यावहारिक दृष्टि से ही जीव कर्म सम्बद्ध होने के कारण अशुद्ध है लेकिन निश्चय नय की अपेक्षा से जीव द्रव्य शुद्ध है ।' स्वामी कार्तिकेय ने कहा है कि "जीव एकान्त रूप से सर्वथा शुद्ध नहीं है अन्यथा तपादि आचरण करना व्यर्थ हो जायेगा।" आत्मा को सर्वथा शुद्ध मानने पर प्रश्न होगा कि शुद्ध जीव शरीरादि क्यों धारण करता है ? शुभ-अशुभ कर्म करने का क्या प्रयोजन है ? सांसारिक सुख-दुःख में वैषम्यता क्यों है ? उपर्युक्त शंकाओं से स्पष्ट है कि आत्मा सर्वथा शुद्ध नहीं है । इसी प्रकार यदि आत्मा को सर्वथा कर्म-संयुक्त माना जाये तो जीव कभी भी मुक्त न हो सकेगा। अतः मानना चाहिए कि आत्मा कथंचित् शुद्ध और कथंचित् अशुद्ध है। जीव में शुद्ध होने की विद्यमान शक्ति निमित्त कारण पा कर जीव शुद्ध हो जाता है। आत्मा अमूर्तिक है : जैन-दर्शन में आत्मा को अमूर्तिक (अरूपी) द्रव्यों के वर्गीकरण में वर्गीकृत किया गया है । आत्मा को अमूर्तिक कहने का तात्पर्य है पुद्गल के गुण रूपादि से रहित होना ।" इसका उल्लेख पहले कर दिया गया १. मग्गणगुणठाणेहि य चउदसहिं तह असुद्धणया । विण्णेया संसारी सव्वे सुद्धा हु सुद्धणया ।।-द्रव्य संग्रह, १३ । पंचास्तिकाय, तात्पर्य वृत्ति, २७ ।। २. कार्तिकेयानुप्रेक्षा, २०० । ३. वही, गा० २०१-२०२, श्रावकाचार (अमितगति), ४।३३ । । ४. पंचास्तिकाय, ९७ । ५. वण्णरस पंच गंधादो फासा अट्ठ णिच्चया जीवे । णो संति अमुत्ति तदो ववहारा मुत्ति बंधादो।।-द्रव्य संग्रह, ७ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002140
Book TitleJain Dharma me Atmavichar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLalchand Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1984
Total Pages336
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Soul, & Spiritual
File Size13 MB
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