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________________ आत्म-स्वरूप-विमर्श : ११३ पापों के अभाव में बन्ध-मोक्ष किसी प्रकार भी सम्भव नहीं है। इसके अतिरिक्त एक बात यह भी है कि जो क्षण अनित्यादि भावनाओं का चिन्तन करेगा वह तो नष्ट हो जायेगा तब मोक्ष किसको प्राप्त होगा? अतः क्षणिकवाद में पूर्व और उत्तर क्षणों में सम्बन्ध के अभाव में परलोकादि असम्भव है। (ड) क्षणिक आत्मा की परिकल्पना से स्मृति, प्रत्यभिज्ञान असम्भव हो जाते हैं। जिस पूर्व क्षण में पदार्थ का अनुभव किया था वह तो नष्ट हो गया और उत्तर क्षण जिसने पदार्थ को नहीं देखा उसमें संस्कार के अभाव होने से स्मृति नहीं हो सकती है क्योंकि संस्कारों का उद्बोधन ही स्मृति कहलाती है । स्मृतिज्ञान के अभाव से प्रत्यभिज्ञान भी क्षणिक-आत्मवाद में असम्भव हो जाता है। क्योंकि प्रत्यभिज्ञान स्मृति और अनुभव पूर्वक ही होता है । जैसे 'यह वही पुरुष है।' जिसको स्मृति होती है उसी को अनुभव होने से प्रत्यभिज्ञान हो सकता है ? लेकिन निरन्वय ज्ञान क्षणों में स्मृति के अभाव से प्रत्यभिज्ञान कैसे बन सकता है ?' इसी प्रकार आत्मा को क्षणिक मानने से विभिन्न दोष आते हैं। इसलिए आत्मा को सर्वथा क्षणिक मानना व्यर्थ है। अतः आत्मा पर्याय की अपेक्षा से क्षणिक और द्रव्य की अपेक्षा से नित्य है। ___ आत्मा कर्म-संयुक्त है : कुन्दकुन्दाचार्य ने आत्मा को कर्म-संयुक्त विशेषण वाला बताया है। समस्त संसारी जीव अनादिकाल से कर्मों से संयुक्त हैं । अमृतचन्द्राचार्य ने आत्मा के कर्म-संयुक्त विशेषण का विश्लेषण करते हुए कहा है कि संसारी आत्मा निश्चयनय की अपेक्षा भावकों (पुद्गल कर्मों के कारणभूत आत्मपरिणामों) के साथ संयुक्त होने से कर्म संयुक्त है और व्यवहार नय की अपेक्षा से द्रव्य कर्मों (चैतन्य परिणाम के अनुरूप पुद्गल परिणामात्मक कर्मों) के साथ संयुक्त होने से कर्म-संयुक्त है ।२ 'कर्म-संयुक्त' यह विशेषण शैव दार्शनिकों का खण्डन करने के लिए दिया गया है, क्योंकि वे समस्त आत्माओं को अनादि काल से शुद्ध मानते हैं । संसारी आत्माओं को यदि अनादिकाल से शुद्ध माना जाये तो आत्माएँ कभी कर्म-बन्धन में नहीं बधेगी । संसारी जीव को कम-संयुक्त न मानने पर मुक्त जीव के भी कर्मबंध होने लगेगा। अतः सिद्ध है कि जिस १. प्रत्यभिज्ञानस्मृतीच्छादेरभावात्सन्तानान्तरचित्तवत् । तदभावश्च प्रत्यभिज्ञा तुरेकस्यान्वितस्याभावात् ।-अष्टसहस्री, पृ० १८२ । स्याद्वादमंजरी, कारिका, १८। २. पंचास्तिकाय, तात्पर्यवृत्ति टीका, २७ । ३. संसारस्थव्याख्यानं सदाशिवं प्रति ।-द्रव्यसंग्रह वृति, ३ । ४. सिद्धान्ताचार्य श्री कैलाशचन्द्र शास्त्री, जैनधर्म, पृ० ९२ । ८ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002140
Book TitleJain Dharma me Atmavichar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLalchand Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1984
Total Pages336
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Soul, & Spiritual
File Size13 MB
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