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११२ : जैनदर्शन में आत्म-विचार डोरा अनेक मोतियों में अनुस्यूत रहता है उसी प्रकार सम्पूर्ण ज्ञानधाराओं में आत्मा अन्वय से रहता है। आत्मा को क्षणिक मानने में निम्नांकित दोष आते हैं :. (क) आत्मा को क्षणिक मानने से आत्मा अवस्तु सिद्ध होती है क्योंकि जिसमें अर्थ-क्रिया होती है वह वस्तु कहलाती है।' क्षणिक आत्मा में क्रम एवं अक्रम किसी भी प्रकार से अर्थक्रिया सम्भव नहीं है। क्योंकि क्षणिक पदार्थ में देशकृत, कालकृत क्रम असम्भव है। इसी प्रकार अक्रम से भी अर्थक्रिया सम्भव नहीं है। इसलिए आत्मा को क्षणिक मानना ठीक नहीं है। __(ख) आत्मा को क्षणिक मानने पर किये गये कार्यों का विनाश हो जाता है अर्थात् जिस क्षण में कार्य किये थे वह नष्ट हो जाता है, उसे अपने किये गये कार्यों का फल नहीं प्राप्त होता है और जिस उत्तर आत्मक्षण ने कार्य नहीं किया उसको फल की प्राप्ति होती है। अतः आत्मा को क्षणिक मानने पर 'कृतप्रणाश' और 'अकृतकर्मभोग' नामक दोष आता है।
(ग) क्षणिक आत्मवाद में हिंस्य, हिंसक, हिंसा और हिंसा-फल नहीं बनेगा जिसने बंध किया वह मुक्त नहीं होगा । बंधेगा कोई, छूटेगा दूसरा ।
(घ) क्षणिक आत्मवाद में पुनर्जन्म तथा मोक्ष भी नहीं बनेगा । भट्टाकलंक देव ने भी कहा है"-'निरन्वय विनाशी अर्थात्-आत्मा को क्षणिक स्वीकार करने पर ज्ञान वैराग्यादि परिणमनों का आधार भूत पदार्थ न होने के कारण मोक्ष नहीं बन सकेगा। इसी प्रकार निमित्त-नैमित्तिक सम्बन्ध तथा लोक व्यवहार भी क्षणिकवाद में सम्भव नहीं हैं। समन्तभद्र ने भी यही दोष दिखाया है। क्षणिकवाद में शुभ-अशुभ कर्म नहीं हो पाने के कारण उसके परिणाम स्वरूप पुण्य
१. अर्थक्रियासमर्थयलक्षणत्वाद्वस्तुतः ।-न्यायविनिश्चय, १११५ । २. अष्टसहस्री कारिका, ८॥ ३. स्याद्वादमंजरी, १८। षड्दर्शनसमुच्चय टीका, कारिका, श्रावकाचार
(अमितगति), ४।८७ । ४. हिनस्त्यनभिसंधातृ न हिनस्त्यभिसंधिमत् ।।
बध्यते तद्वयापेतं चित्तं बद्धन मुच्यते ॥-देवागम, कारिका ५१ । अष्ट
सहस्री, पृ० १९७ ॥ ५. तत्त्वार्थवार्तिक, ११११५७ । ६. क्षणिकैकान्तपक्षेऽपि प्रेत्यभावाद्यसम्भवः । न च तत्कार्यारम्भकत्वाभावे फलं
पुण्यपापलक्षणं संभवति । तदभावे न प्रेत्यभावो न बन्धो न च मोक्षः स्यात् । अष्टसहस्री, पृ० १८२ ।
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