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________________ आत्म-स्वरूप-विमर्श : १११ समन्तभद्र' ने भी उपर्युक्त दोष दिखाये हैं। कूटस्थ नित्य आत्मा में अर्थक्रिया न बनने के कारण आत्मा अवस्तु सिद्ध हो जायेगी ।२ क्योंकि सांख्यादि मत में “अप्रच्युतानुत्पन्नस्थिरैकरूपं नित्यम् !" अर्थात्-उत्पत्ति, विनाश से रहित सदा एक रूप रहने को नित्य कहा है । जैनसिद्धान्त में उपर्युक्त दोष नहीं आता है क्योंकि जैन-दर्शन के मतानुसार नित्य पदार्थ उत्पाद-व्यय वाला माना गया है। ___ कूटस्थ नित्य आत्मा को स्वीकार करने पर आत्मा में हिंसा, संयम, नियम, दान, दया, सम्यग्दर्शनादि नहीं हो सकते हैं। क्योंकि यदि वह कुछ करेगा तो उसे अपनी पूर्व अवस्था छोड़कर अन्य अवस्था धारण करनी पड़ेगी जो कूटस्थ नित्यवाद में सम्भव नहीं है। अतः आत्मा को अपरिणामी नहीं माना जा सकता है। आत्मा अनित्य (क्षणिक) नहीं है : बौद्ध-दर्शन में आत्मा को क्षणिक माना गया है। उनके सिद्धान्त में विचार-क्षणों को आत्मा कहा गया है । सम्पूर्ण क्षणों में अन्वय रूप से रहने वाले आत्मा को बौद्ध दार्शनिक नहीं मानते हैं। उनका कथन है कि "चैतन्य अपने पूर्वापर काल में होने वाले धाराप्रवाह रूप संतान की अपेक्षा से ही अनादि काल, अनन्त काल तक अनुयायी है। किसी एक ऐसे द्रव्य की सत्ता नहीं है जो विभिन्न क्षणों में अन्वित रहता हो।। __ जैन दार्शनिक आत्मा को सर्वथा क्षणिक नहीं मानते हैं क्योंकि वे उत्पत्ति और विनाश दोनों अन्वय रूप से रहने वाले द्रव्य की सत्ता मानते हैं । जिस प्रकार शिवक, स्थास, कोष, कुशूल, घट आदि समस्त पर्यायों में मिट्टी द्रव्य अन्वय रूप से रहता है। इसी प्रकार एक सन्तान चित्त रूप आत्मा को भी बालक, कुमारादि अवस्थाओं एवं अनेक जन्मान्तरों में अन्वय रूप से रहने वाला मानना चाहिए क्योंकि यह प्रत्यभिज्ञान से सिद्ध होता है। जिस प्रकार एक १. नित्यत्वकान्तपक्षेऽपि विक्रिया नोपपद्यते । प्रागेव कारकाभावः क्व प्रमाणं क्व तत्फलम् ॥ पुण्यपापक्रिया न स्यात् प्रेत्यभावफलं कुतः । बन्धमोक्षौ च तेषां न येषां त्वं नासि नायकः ।। -देवागम, ३।३७।४० । २. स्याद्वादमंजरी, कारिका ५ । ३. तत्त्वार्थसूत्र, ५।३१। ४. सिद्धान्तसार संग्रह, ४।२३-४ । ५. तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक १३१५२ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002140
Book TitleJain Dharma me Atmavichar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLalchand Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1984
Total Pages336
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Soul, & Spiritual
File Size13 MB
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