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________________ ११० : जैनदर्शन में आत्म-विचार वेदान्त दार्शनिक आत्मा को अपरिणामी कूटस्थ नित्य मानते हैं। लेकिन कुमारिल भट्ट आत्मा को जैन दार्शनिकों की तरह परिणामी ही मानते हैं । सांख्य दर्शन ने आत्मा को अपरिणामी मान कर भी उसे औपचारिक रूप से भोक्ता माना है। अपरिणामी-कूटस्थ-नित्य आत्मवाद एवं सर्वथा क्षणिकआत्मवाद की जैन दार्शनिकों ने तीव्र आलोचना की है।' आचार्य कुन्दकुन्द ने कहा है कि यदि आत्मा कर्मों से न स्वयं बंधा है और न क्रोधादि रूप स्वयं परिणमन करता है, तो वह अपरिणामी हो जाएगा। साथ ही क्रोधादि भाव रूप स्वयं परिणमन न करने के कारण संसार का अभाव हो जाएगा । आत्मा के अपरिणामी होने पर पुद्गलकर्म रूप क्रोध जीव को क्रोध रूप से परिणमित नहीं कर सकेगा। आत्मा को सर्वथा कूटस्थ, नित्य, अपरिणामी मानने से उसमें किसी भी प्रकार का विकार न होने के कारण कर्ताकर्मादि, प्रमाण तथा उसके फल का अभाव मानना पड़ेगा जो अतार्किक है। इसके अलावा आत्मा को अपरिणामी मानने पर पुण्य-पाप की व्यवस्था नहीं बन सकेगी। क्योंकि अपरिणामी आत्मा शुभाशुभ कर्म न करने के कारण शुभ-अशुभ कर्मों से बंध नही सकती है । भट्ट अकलंक देव ने कहा भी है। "यदि आत्मा कूटस्थ नित्य है तो उसमें न तो ज्ञानादि की उत्पत्ति हो सकती है और न हलचल रूप क्रिया ही हो सकेगी क्योंकि कूटस्थ नित्य आत्मवादियों ने आत्मा को व्यापक भी माना है । आत्मा में किसी भी प्रकार का परिणमन न होने से ज्ञान और वैराग्यरूप कारणों की सम्भावना भी नहीं है । ऐसी हालत में निर्विकारी आत्मा में आत्मा, मन, शरीर और अर्थ के सन्निकर्ष से होने वाला ज्ञान भी उत्पन्न न हो सकेगा । आत्मा को कूटस्थ नित्य मानने पर उसमें आकाश की तरह मोक्षादि के अभाव का प्रसंग उपस्थित होगा अर्थात् आत्मा को मोक्षादि नहीं हो सकेगा। गुणरत्न सूरि ने भी कहा है कि "यदि आत्मा नित्य अपरिवर्तनशील है तो ज्ञान के उत्पन्न हो जाने के बावजूद वह पहले की तरह मूर्ख रहेगा, वह कभी विद्वान् नहीं बन सकेगा। जब उसे ज्ञान न होगा तो तत्त्वों को न जानने के कारण मोक्ष न होगा। १. कुशलाकुशलं कर्म परलोकश्च न क्वचित् । एकान्तग्रहरक्तेषु नाथ स्वपरवरिषु ।।-देवागम कारिका, १३८ । २. समयसार, १२१-२३ ।। ३. तत्त्वार्थवार्तिक, ११११५६, १।९।११ । ४. षड्दर्शनसमुच्चय, टीका, कारिका ४९ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002140
Book TitleJain Dharma me Atmavichar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLalchand Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1984
Total Pages336
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Soul, & Spiritual
File Size13 MB
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