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आत्म-स्वरूप-विमर्श : १०९ जाता है । व्यंजन पर्याय' और अर्थपर्याय ये दो पर्याय द्रव्यों में पाई जाती है जिनके कारण वे द्रव्य परिणामी कहलाते हैं । जीव द्रव्य और पुद्गल द्रव्य दोनों में इस प्रकार की पर्यायें पाई जाती हैं इसलिए जीव और पुद्गल परिणामी द्रव्य कहलाते हैं । धर्म, अधर्म, आकाश और काल इन चार द्रव्यों में अर्थपर्यायें ही होती हैं इसलिए ये अर्थपर्याय की अपेक्षा से तो परिणामी है। किन्तु इनमें व्यंजन पर्यायों का अभाव होता है इसलिए व्यञ्जन पर्याय की अपेक्षा से ये अपरिणामी कहलाते हैं। जीव द्रव्य परिणमन अपेक्षा से अनित्य है। किन्तु अनित्य का तात्पर्य यह नहीं है कि उसका सर्वथा विनाश हो जाता है। उसे अनित्य कहने का तात्पर्य यही है कि उसकी वर्तमान पर्याय भविष्यत्कालीन पर्याय में बदल जाती है । किन्तु दोनों पर्यायों में रहने वाला वही जीव आत्मा होता है। दूसरे शब्दों में, द्रव्य स्व की अपेक्षा से आत्म-द्रव्य नित्य एवं अपरिणामी तथा पर्याय की अपेक्षा से अनित्य तथा परिणामी है । हरिवंशपुराण में कहा भी है :
द्रव्यपर्यायरूपत्वान्नित्यानित्योभयात्मकाः।४ बाल्यावस्था से युवावस्था और युवावस्था से जरावस्था प्राप्त करना तथा कर्मों के अनुसार मनुष्यगति, नरकगति, तिथंचगति और देवगति को प्राप्त करना आत्मा का परिणाम कहलाता है। यदि आत्मा को परिणामी न माना जाए तो बन्धन तथा मोक्ष असम्भव हो जाएंगे। इसलिए स्वामी कार्तिकेय ने कहा है कि : "जीव पुण्य-पापादि रूप से परिणत होता रहता है। यद्यपि जीव अनादिनिधन है तो भी नवीन-नवीन पर्यायों में परिणत होता रहता है।" वसुनन्दि ने भी कहा है : “जीव परिणामी है क्योंकि वह स्वर्गादि गतियों में गमन करता है ।" आ० कुन्दकुन्द ने भी यही कहा है।
भारतीय दर्शन में न्याय-वैशेषिक, सांख्य-योग, प्रभाकर मीमांसा एव
१. व्यंजन पर्याय स्थूल एवं शब्दगोचर होती है। शरीर के आकार रूप आत्म प्रदेशों का अवस्थान व्यंजन पर्याय होती है। नर नारकादि व्यंजन पर्याय
संसारी जीवों के ही होती हैं । २. अगुरुलघुगुण की षवृद्धि और हानि रूप प्रतिक्षण बदलने वाली अर्थपर्याय __ कहलाती है । मुक्त जीव इसी पर्याय की अपेक्षा परिणामी है । ३. पंचास्तिकाय, तात्पर्य वृत्ति टीका २७ । द्रव्यसंग्रह टीका, ७६-७७ । ४. हरिवंश पुराण, ३३१०८ ।। ५. कार्तिकेयानुपेक्षा, १९०।२३१-२३२ । ६. श्रावकाचार ( वसुनन्दि ), २६ । ७. भावपाहुड़, ११६ ।
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