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१०८ : जैनदर्शन में आत्म-विचार
आत्मा के क्रियाशील होने पर भी उसे सर्वथा अनित्य कहना ठीक नहीं है क्योंकि सांख्य दार्शनिकों ने अहंकारादि तथा परमाणु आदि को क्रियावान् मान कर नित्य माना है । नैयायिकों ने परमाणु और मन को सक्रिय मान कर भी अनित्य नहीं माना है । दूसरी बात यह है कि जैन दार्शनिकों ने पर्यायाथिक नय की अपेक्षा से आत्मा को अनित्य और निश्चय नय की दृष्टि से निष्क्रिय तथा नित्य माना है । सर्वथा नित्य तो घट भी नहीं, तब आत्मा कैसे हो सकता है।' आत्मा व्यापक है इसलिए निष्क्रिय है, निष्क्रिय-आत्मवादियों का यह कथन भी ठीक नहीं है क्योंकि आत्मा व्यापक नहीं है, इसका तार्किक परिशीलन आगे किया जाएगा। दूसरी बात यह है कि जिस प्रकार बाह्य और आभ्यन्तर कारणों से पत्थर सक्रिय होता है उसी प्रकार स्वाभाविक क्रियाशील आत्मा शरीर परिणाम वाला होकर शरीर कृत क्रियाओं के अनुसार स्वयं सक्रिय हो जाता है और शरीर के अभाव में दीपक को शिखा के समान स्वाभाविक क्रियायुक्त ही रहता है। यदि आत्मा को निष्क्रिय माना जाए तो बन्ध-मोक्ष न हो सकेगा। अतः कहा जा सकता है कि आत्मा क्रियावान् है, क्योंकि वह अव्यापक है । जो-जो अव्यापक द्रव्य होते हैं वे सक्रिय होते हैं जैसे पृथ्वी आदि । आत्मा भी अव्यापक है इसलिए सक्रिय है । इस प्रकार अनुमान से भी आत्मा सक्रिय सिद्ध होता है। आत्मा नित्य है :
जैन-दर्शन में अन्य द्रव्यों की तरह आत्मा भी परिणामी एवं नित्य माना गया है । वह भी उत्पाद, व्यय एवं ध्रौव्य स्वभाव वाला है । अपने स्वभाव में अबस्थित रहना परिणाम कहलाता है । आत्मा में इस प्रकार का परिणाम पाया जाता है इसलिए आत्मा परिणामी कहलाता है। परिणाम का अर्थ परिवर्तन होता है । अतः स्वद्रव्यत्व जाति को छोड़े बिना द्रव्य का स्वाभाविक अथवा प्रायोगिक परिवतन परिणाम कहलाता है। परिवर्तन या परिणाम को पर्याय भी कहा
१. तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक ५।७।४५-४६ । २. तत्त्वार्थवार्तिक ५।७।२४-२५ । न्यायकुमुदचन्द्र, पृ० २६६ । ३. तत्त्वार्थवार्तिक, २।२९।२ । ४. वही, २।२९।३ । न्यायकुमुदचन्द्र, पृ० २६६ । ५. तत्त्वार्थश्लोकवातिक ११४:४५ । ६. प्रवचनसार, ९९ । तद्भावः परिणामः ।
-तत्त्वार्य सूत्र, ५।४२ । ७. तत्त्वार्थवार्तिक ५।२२।१०। परिणामो विवर्तः । -न्यायविनिश्चय टीका, १।१० ।
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