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________________ उत्तर भारत के जैन मूर्ति अवशेषों का ऐतिहासिक सर्वेक्षण ] हैं। इस क्षेत्र में जिनों की सर्वाधिक मूर्तियां उत्कीर्ण हुई। जिनों में ऋषभ और पाश्वं सबसे अधिक लोकप्रिय थे । लोकप्रियता के क्रम में ऋषभ और पार्व के बाद महावीर एवं नेमि की मूर्तियां हैं। अजित, सम्भव, सुपार्श्व, विमल, चन्द्रप्रभ, सुविधि, शान्ति, मल्लि' एवं मुनिसुव्रत की भी कई मूर्तियां मिली हैं। जिन मूर्तियों में अष्ट-प्रातिहार्यों, लांछनों एवं यक्ष-यक्षी युगलों का नियमित चित्रण हुआ है। ऋषभ, नेमि एवं कुछ उदाहरणों में पार्व, महावीर और शान्ति के साथ वैयक्तिक विशिष्टताओं वाले पारम्परिक या अपारम्परिक यक्ष-यक्षी निरूपित हैं। अन्य जिनों के साथ सामान्य लक्षणों वाले यक्ष-यक्षी या सर्वानुभूति एवं अम्बिका आमूर्तित हैं । नेमि के साथ देवगढ़, मथुरा एवं बटेश्वर की कुछ मूर्तियों में बलराम और कृष्ण भी आमंतित हैं (चित्र २७, २८)। चक्रेश्वरी, अम्बिका, पद्मावती एवं सिद्धायिका यक्षियों की स्वतन्त्र मूर्तियां भी मिली हैं । सर्वानुभूति यक्ष, बाहुबली, भरत चक्रवर्ती, सरस्वती, क्षेत्रपाल, जैन यगल, जिन चौमुखी एवं जिन चौवीसी की भी अनेक मूर्तियां प्राप्त हुई हैं। ल० नवीं शती ई० तक इस क्षेत्र की सभी जिन मूर्तियों में यक्ष-यक्षी सर्वानुभूति एवं अम्बिका हैं। पुरातत्व संग्रहालय, मथुरा (डी७) की ल० दसवीं शती ई० की एक द्विभुज अम्बिका मूर्ति में बलराम, कृष्ण, गणेश एवं कुबेर की भी मूर्तियां उत्कीर्ण हैं। राज्य संग्रहालय, लखनऊ की दो ऋषभ (जे ७८) और मुनिसुव्रत (जे ७७६) मूर्तियों में बलराम और कृष्ण की भी मूर्तियां बनी हैं। इसी संग्रहालय की १००६ ई० की एक मुनिसुव्रत मूर्ति (जे ७७६) के परिकर में वस्त्राभूषणों से सज्जित जीवन्तस्वामी की दो लघु मूर्तियां चित्रित हैं। जीवन्तस्वामी की दो आकृतियां इस बात का संकेत देती हैं कि महावीर के अतिरिक्त भी अन्य जिनों के जीवन्तस्वामी स्वरूप की कल्पना की गई थी। इलाहाबाद संग्रहालय में कौशाम्बी, पभोसा एवं लच्छगिरि आदि स्थलों से प्राप्त दसवीं से बारहवीं शती ई० के मध्य की ९ जैन मूर्तियां सुरक्षित हैं। इनमें चन्द्रप्रभ, शान्ति एवं जिन चौमुखी मूर्तियां हैं (चित्र १७, १९)।" सारनाथ संग्रहालय में विमल की एक मूर्ति (२३६) है (चित्र १८)। देवगढ़ देवगढ़ (ललितपुर) में नवीं (८६२ ई०) से बारहवीं शती ई० के मध्य की वैविध्यपूर्ण एवं प्रचुर जैन मूर्ति सम्पदा सुरक्षित है। किसी समय इस स्थल पर ३५ से ४० जैन मन्दिर थे। सम्प्रति यहां ३१ जैन मन्दिर हैं। यहां लगभग १०००-११०० जैन मूर्तियां हैं। इनमें स्तम्भों, प्रवेश-द्वारों आदि की लघु आकृतियां सम्मिलित नहीं हैं। देवगढ़ की जैन शिल्प सामग्री दिगंबर सम्प्रदाय से सम्बन्धित है । मन्दिर १२ (शान्तिनाथ मन्दिर) एवं मन्दिर १५ नवीं शती ई० के हैं। जैन मुर्तिविज्ञान के अध्ययन की दृष्टि से मन्दिर १२ की भित्ति की २४ यक्षियां सर्वाधिक महत्वपूर्ण हैं (चित्र ४८)। २४ यक्षियों के सामूहिक चित्रण का यह प्राचीनतम उदाहरण है। मन्दिर की भित्ति पर कुल २५ देवियां हैं। इनमें दो देवियों की मूर्तियां पश्चिम की देवकुलिकाओं की दीवारों के पीछे छिपी हैं। भित्ति की यक्षियां त्रिभंग में हैं और उनके शीर्ष भाग में ध्यानस्थ जिन मूर्तियां उत्कीर्ण हैं। जिनों एवं यक्षियों के नाम उनकी आकृतियों के नीचे लिखे हैं। जिनों के साथ लांछन नहीं उत्कीर्ण हैं। यहां तक कि ऋषभ की जटाएं और सुपार्श्व एवं पार्श्व के सर्पफण भी नहीं प्रदर्शित हैं। २४ जिनों की सूची में तीन जिनों (व जित, सम्भव, सुमति) के नाम नहीं हैं। दो उदाहरणों में नाम स्पष्ट १ राज्य संग्रहालय, लखनऊ में कुछ श्वेतांबर मूर्तियां भी हैं-जे १४२, १४३, १४४, १४५, ७७६, ८८५, ९४९ २ ऋषभ की लोकप्रियता की पुष्टि न केवल मूर्तियों की संख्या वरन् ऋषभ के साथ अम्बिका एवं लक्ष्मी जैसी लोकप्रिय देवियों के निरूपण से भी होती है। ३ राज्य संग्रहालय, लखनऊ-जे ८८५ ४ राज्य संग्रहालय, लखनऊ-जे ७९३, ६५.५३, पुरातत्व संग्रहालय, मथुरा ३७.२७३८, देवगढ़ (मन्दिर २) ५ चंद्र, प्रमोद, स्टोन स्कल्पचर इन दि एलाहाबाद म्यूजियम, बम्बई,१९७०, पृ० १३८,१४२-४४,१४७,१५३,१५८ ६ जि०इ०३०, पृ० १ ७ कृष्ण देव, पू०नि०, पृ० २५८ जि०इ०दे०, पृ० ९८-१०७ ९ दोनों आकृतियां स्तन से युक्त हैं। अतः उनका देवियां होना निश्चित है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002137
Book TitleJain Pratimavigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMaruti Nandan Prasad Tiwari
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1981
Total Pages370
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Culture
File Size13 MB
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