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[ जैन प्रतिमाविज्ञान
नहीं हैं और पश्चिमी देवकुलिका के पीछे की जिन मूर्ति के नाम की जानकारी सम्भव नहीं है। पहले जिन ऋषभ से सातवें जिन सुपार्श्व की मूर्तियां पारम्परिक क्रम में भी नहीं उत्कीर्ण हैं । '
यक्षियों में केवल चक्रेश्वरी, अनन्तवीर्या, ज्वालामालिनी, बहुरूपिणी, अपराजिता, तारादेवी, अम्बिका, पद्मावती एवं सिद्धाय के ही नाम दिगम्बर परम्परासम्मत हैं । अन्य यक्षियों के नाम किसी साहित्यिक परम्परा में नहीं प्राप्त होते । यह भी उल्लेखनीय है कि केवल चक्रेश्वरी, अम्बिका एवं पद्मावती ही परम्परा के अनुसार सम्बन्धित जिनों (ऋषभ, नेमि, पा) के साथ निरूपित हैं । लाक्षणिक विशेषताओं के अध्ययन से ज्ञात होता है कि केवल अम्बिका का ही लाक्षणिक स्वरूप नियत हो सका था। कुछ यक्षियों के निरूपण में जैन महाविद्याओं की लाक्षणिक विशेषताओं का अनुकरण किया गया है । पर उनके नाम महाविद्याओं से भिन्न हैं । साहित्यिक साक्ष्य में परिचित कुछ यक्षियों के अंकन करने, मयूरवाहिनी एवं सरस्वती नामों से सरस्वती और भिन्न नामों से महाविद्याओं के स्वरूप का अनुकरण करने के बाद भी चौबीस की संख्या पूरी न होने पर अन्य यक्षियां सादी, समरूप एवं व्यक्तिगत विशिष्टताओं से रहित हैं । इस प्रकार देवगढ़ में प्रत्येक जिन के साथ एक यक्षी की कल्पना तो की गई पर अम्बिका के अतिरिक्त अन्य किसी यक्षी की मूर्तिवैज्ञानिक विशेषताएं सुनिश्चित नहीं हुई ।
में
देवगढ़ की स्वतन्त्र जिन मूर्तियां अष्ट-प्रातिहार्यो, लांछनों एवं यक्ष-यक्षी युगलों से युक्त हैं (चित्र ८, १५, ३८ ) । ४ जिन मूर्तियों में लघु जिन आकृतियों एवं नवग्रहों के चित्रण विशेष लोकप्रिय थे। कभी-कभी परिकर की २३ लघु जिन मूर्तियां मूलनायक के साथ मिलकर जिन चौबीसी का चित्रण करती हैं । ऋषभ की कुछ मूर्तियों में स्कन्धों के नीचे तक लटकती लम्बी जटाएं प्रदर्शित हैं। पार्श्व की सर्पकुण्डलियां भी घुटनों या चरणों तक प्रसारित हैं। एक उदाहरण ( मन्दिर ६) पार्श्व के दोनों ओर नाग आकृतियां और दूसरे ( मन्दिर १२ की पश्चिमी चहारदीवारी ) में पादव के आसन पर लांछन रूप में कुक्कुट - सर्प अंकित हैं ( चित्र ३१, ३२) । देवगढ़ में केवल ११ जिनों की मूर्तियां मिली । ये जिन ऋषभ (७० से अधिक), अजित ( ६ ), सम्भव (१०), अभिनन्दन ( १ ), पद्मप्रभ (१), सुपार्श्व (४), चन्द्रप्रभ (१०), शान्ति (६), नेमि (२६), पार्श्व (५० से अधिक ) एवं महावीर ( ९ ) हैं (चित्र ८, १५, २७, ३१, ३२, ३८ ) । पारम्परिक यक्ष-यक्ष केवल ऋषभ, नेमि एवं पार्श्व के साथ निरूपित हैं । चन्द्रप्रभ, शान्ति एवं महावीर के साथ स्वतन्त्र किन्तु परम्परा में अणित यक्ष-यक्षी आमूर्तित हैं । अन्य जिनों के साथ सामान्य लक्षणों वाले यक्ष-यक्षी उत्कीर्ण हैं । कुछ उदाहरणों में ऋषभ एवं महावीर के साथ भी यक्ष-यक्षी सर्वानुभूति एवं अम्बिका हैं । " सर्वानुभूति एवं अम्बिका देवगढ़ के सर्वाधिक लोकप्रिय यक्ष-यक्षी हैं । लोकप्रियता के क्रम में गोमुख-चक्रेश्वरी का दूसरा स्थान है ।' मन्दिर २ की ल० दसवीं शती ई० की एक
मूर्ति में बलराम और कृष्ण भी आमूर्तित हैं (चित्र २७) ।
जिनों की स्वतन्त्र मूर्तियों के अतिरिक्त देवगढ़ में द्वितोर्थी (५०), त्रितीर्थी (१५), चौमुखी (५०) मूर्तियां एवं चौबीसी पट्ट भी हैं (चित्र ६२, ६४, ६५, ७५) । द्वितीर्थी एवं त्रितीर्थी जिन मूर्तियों में दो या तीन जिन कायोत्सर्ग
२ तिलोयपण्णत्ति ४.९३७-३९
१ ऋषभ के पूर्व अभिनन्दन और बाद में वर्धमान का उल्लेख हुआ है ।
३ यक्षियों की विस्तृत लाक्षणिक विशेषताएं छठें अध्याय में विवेचित हैं ।
४ ऋषभ एवं पार्श्व की कुछ विशाल मूर्तियों में यक्ष-यक्षी नहीं निरूपित हैं । पार्श्व के साथ लांछन एक ही उदाहरण में उत्कीर्ण है ।
५ एक त्रितीर्थी जिन मूर्ति में कुंथु और शीतल की भी मूर्तियां उत्कीर्ण हैं |
६ मन्दिर ४ की १०वीं शती ई० की एक ऋषभ मूर्ति में यक्ष अनुपस्थित है और सिंहासन छोरों पर अम्बिका एवं चक्रेश्वरी निरूपित हैं ।
७ मन्दिर ४, ८ और ११ की ऋषभ, शान्ति एवं महावीर मूर्तियों में यक्षी अम्बिका है। एक में अम्बिका के मस्तक
पर सर्पफण का छत्र भी प्रदर्शित है ।
८ मन्दिर १ की चन्द्रप्रभ मूर्ति में यक्ष गोमुख
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| मन्दिर १६ की नेमि मूर्ति में यक्ष-यक्षी गोमुख एवं चक्रेश्वरी हैं ।
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