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________________ [ जैन प्रतिमाविज्ञान के अंकन के रूप में हैं। आयागपटों की जिन मूर्तियों का उल्लेख आयागपटों के अध्ययन में किया जा चुका है। अब शेष तीन प्रकार के जिन अंकनों का उल्लेख किया जायगा । ४८ प्रतिमा सर्वतोभद्रिका या जिन चौमुखी - मथुरा में जिन चौमुखी मूर्तियों का उत्कीर्णन पहली दूसरी शती ई० में विशेष लोकप्रिय था ( चित्र ६६ ) । लेखों में ऐसी मूर्तियों को 'प्रतिमा सर्वतोभद्रिका', ' 'सर्वतोभद्र प्रतिमा', 'शवदोमद्रिक' एवं 'चतुबिम्ब' कहा गया है । प्रतिमा - सर्वतोभद्रिका या सर्वतोभद्र - प्रतिमा ऐसी मूर्ति है जो सभी ओर से शुभ या मंगलकारी है ।" इन मूर्तियों में चारों दिशाओं में कायोत्सर्ग-मुद्रा में चार जिन आकृतियां उत्कीर्ण रहती हैं। इन चार में से केवल दो ही जिनों की पहचान सम्भव है । ये जिन लटकती केशावलियों एवं सप्त सर्पफणों के छत्र से युक्त ऋषभ और पार्श्व हैं। गुप्त युग में जिन चौमुखी की लोकप्रियता कम हो गई थी । स्वतन्त्र जिन मूर्तियां - मथुरा को कुषाणकालीन जिन मूर्तियां संवत् ५ से सं० ९५ (८३ - १७३ ई०) के मध्य की हैं (चित्र १६, ३०, ३४ ) | श्रीवत्स से युक्त जिन या तो कायोत्सर्ग-मुद्रा में खड़े हैं या ध्यानमुद्रा में आसीन हैं । इनके साथ अष्ट-प्रातिहार्यों में से केवल ६ प्रातिहार्य - सिंहासन ७, भामण्डल', चैत्य वृक्ष, चामरधर सेवक, उड्डीयमान मालाधर एवं छत्र उत्कीर्ण हैं । इनमें भी सिंहासन, भामण्डल एवं चैत्यवृक्ष का ही चित्रण नियमित है । सभी आठ प्रातिहार्य गुप्त युग के अन्त में निरूपित हुए । ध्यानमुद्रा में आसीन मूर्तियों में पार्श्ववर्ती चामरधर सेवक सामान्यतः नहीं उत्कीर्ण हैं । कुछ उदाहरणों में चामरधरों के स्थान पर दानकर्ताओं ( राज्य संग्रहालय, लखनऊ-जे ८, १९) या जैन साधुओं की आकृतियां बनी हैं। जिनों के केश गुच्छकों के रूप में हैं या पीछे की ओर संवारे हैं, या फिर मुण्डित हैं । सिंहासन के मध्य में हाथ जोड़े या पुष्प लिये हुए साधु-साध्वियों, श्रावक-श्राविकाओं एवं बालकों की आकृतियों से वेष्टित धर्मचक्र उत्कीर्ण है । जिनों की हथेलियों, तलुओं एवं उंगलियों पर त्रिरत्न धर्मचक्र, स्वस्तिक और श्रीवत्स जैसे मंगल- चिह्न बने हैं। सभी जिन मूर्तियां निर्वस्त्र हैं । १° इन मूर्तियों में लटकती जटाओं और सप्त सर्पफणों के छत्र के आधार पर क्रमशः ऋषभ " और पार्श्व की पहचान सम्भव है ( चित्र ३० ) । मथुरा से इन्हीं दो जिनों की सर्वाधिक कुषाणकालीन मूर्तियां मिली हैं । बलराम-कृष्ण की पार्श्ववर्ती आकृतियों के आधार पर कुछ मूर्तियों (राज्य संग्रहालय, लखनऊ-जे ४७, ६०, ११७ ) की पहचान नेमि से की गई है । १२ १ एपि०इण्डि०, खं० १, पृ० ३८२, लेख सं० २ ० २, पृ० २०३, लेख सं० १६ २ वही, खं० २, पृ० २०२, लेख सं० १३ २११, लेख सं० ४१ ४ वही, खं० २, पृ० ५ वही, खं० २, पृ० २०२-०३, २१० भटाचार्य, बी०सी०, दि जैन आइकानोग्राफी, लाहौर, १९३९, पृ० ४८; अग्रवाल, वी०एस०, मथुरा म्यूजियम केटलाग, भाग ३, वाराणसी, १९६३, पृ० २७ ६ ध्यानमुद्रा में आसीन जिन मूर्तियां तुलनात्मक दृष्टि से अधिक हैं । ७ कुछ कायोत्सर्ग मूर्तियों (राज्य संग्रहालय, लखनऊ - जे २, ८) में सिंहासन नहीं उत्कीर्ण है । ८ भामण्डल हस्तिनख ( या अर्धचन्द्रावलि ) एवं पूर्ण विकसित पद्म के अलंकरण से युक्त है । ९ शाह, यू०पी०, 'बिगिनिंग्स ऑव जैन आइकनोग्राफी', सं०पु०प०, अं० ९, पृ०६ १० महावीर के गर्भापहरण का दृश्यांकन जिसका उल्लेख केवल श्वेताम्बर परम्परा में ही हुआ है ( राज्य संग्रहालय, लखनऊ- जे ६२६), एवं कुछ नग्न साधु आकृतियों (राज्य संग्रहालय, लखनऊ - जे १७५ ) की भुजा में वस्त्र का प्रदर्शन मथुरा की कुषाणकला में श्वेताम्बरों और दिगम्बरों के सहअस्तित्व के सूचक हैं । ३ वही, खं० २, पृ० २०९-१०, लेख सं० ३७ ११ लटकती जटा से युक्त दो मूर्तियों (राज्य संग्रहालय, लखनऊ-जे २६, ६९) में ऋषभ का नाम भी उत्कीर्ण है । १२ श्रीवास्तव, वी० एन० पू०नि०, पृ० ४९-५२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002137
Book TitleJain Pratimavigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMaruti Nandan Prasad Tiwari
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1981
Total Pages370
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Culture
File Size13 MB
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