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________________ उत्तर भारत के जैन मूर्ति अवशेषों का ऐतिहासिक सर्वेक्षण ] एक मूर्ति ( राज्य संग्रहालय, लखनऊ-जे ८) में 'अरिष्टनेमि' का नाम भी उत्कीर्ण है। संभव, ' मुनिसुव्रत एवं महावीर की पहचान पीठिका लेखों में उत्कीर्ण नामों से हुई है (चित्र ३४) । इस प्रकार मथुरा की कुषाण कला में ऋषभ, संभव, मुनिसुव्रत, नेमि, पार्श्व एवं महावीर की मूर्तियां निर्मित हुईं । जिनों के जीवनदृश्य — कुषाण काल में जिनों के जीवनदृश्य भी उत्कीर्ण हुए। राज्य संग्रहालय, लखनऊ में सुरक्षित एक पट्ट (जे ६२६) पर महावीर के गर्भापहरण का दृश्य है (चित्र ३९ ) । राज्य संग्रहालय, लखनऊ के एक अन्य पट्ट (जे ३५४) पर इन्द्र सभा की नर्तकी नीलांजना ऋषभ के समक्ष नृत्य कर रही है (चित्र १२ ) । ज्ञातव्य है कि नीलांजना के नृत्य के कारण ही ऋषभ को वैराग्य उत्पन्न हुआ था ।" राज्य संग्रहालय, लखनऊ के एक और पट्ट (बी २०७ ) पर स्तूप और जिन मूर्ति के पूजन का दृश्य उत्कीर्ण है । सरस्वती एवं नैगमेषी मूर्तियां - सरस्वती की प्राचीनतम मूर्ति (१३२ ई०) जैन परम्परा की है और मथुरा ( राज्य संग्रहालय, लखनऊ - जे २४) से मिली है । द्विभुज देवी की वाम भुजा में पुस्तक है और अभयमुद्रा प्रदर्शित करती दक्षिण भुजा में अक्षमाला है । अजमुख नैगमेषी एवं उसकी शक्ति की ६ से अधिक मूर्तियां मिली हैं । लम्बे हार से सज्जित देवता की गोद या कन्धों पर बालक प्रदर्शित हैं । एक पट्ट (राज्य संग्रहालय, लखनऊ - जे ६२३) पर सम्भवतः कृष्ण वासुदेव के जीवन का कोई दृश्य उत्कीर्ण है ।" पट्ट पर ऊपर की ओर एक स्तूप और चार ध्यानस्थ जिन मूर्तियां उत्कीर्ण हैं। इनमें एक जिन मूर्ति पार्श्वनाथ की है । नीचे, दाहिनी भुजा से अभयमुद्रा व्यक्त करती एक स्त्री आकृति खड़ी है जिसे लेख में 'अनघश्रेष्ठी विद्या' कहा गया है। बायीं ओर की साधु आकृति को लेख में 'कण्ह श्रमण' कहा गया है जिसके समीप नमस्कार मुद्रा में सात सर्पफणों के छत्र से युक्त एक पुरुष आकृति चित्रित है । अंतगड्दसाओ में कृष्ण का 'कण्ह वासुदेव' के नाम से उल्लेख है । साथ ही यह भी उल्लेख है कि कण्ह वासुदेव ने दीक्षा ली थी ।" पट्ट की कण्ह श्रमण की आकृति दीक्षा ग्रहण करने के बाद कृष्ण का अंकन है | समीप की सात सर्पफणों के छत्र वाली आकृति बलराम को हो सकती है । गुजरात की जूनागढ़ गुफा ( ल० दूसरी शती ई०) में मंगलकलश, श्रीवत्स, स्वस्तिक, भद्रासन, मत्स्ययुगल आदि मांगलिक चिह्न उत्कीर्ण हैं । " गुप्तकाल ४९ गुप्तकाल में जैन मूर्तियों की प्राप्ति का क्षेत्र कुछ विस्तृत हो गया । कुषाणकालीन कलावशेष जहां केवल मथुरा एवं चौसा से ही मिले हैं, वहीं गुप्तकाल की जैन मूर्तियां मथुरा एवं चौसा के अतिरिक्त राजगिर, विदिशा, उदयगिरि, अकोटा, कौम और वाराणसी से भी मिली हैं । कुषाणकाल की तुलना में मथुरा में गुप्तकाल में कम जैन मूर्तियां उत्कीर्ण १ १२६ ई० की एक मूर्ति (राज्य संग्रहालय, लखनऊ - जे १९) में संभवनाथ का नाम उत्कीर्ण है । २ १५७ ई० की एक मूर्ति (राज्य संग्रहालय, लखनऊ- जे २०) 'अहंत नन्द्यावर्त' को समर्पित है । के० डी० वाजपेयी ने इसकी पहचान मुनिसुव्रत से की है। फ्यूरर ने नन्द्यावर्त को प्रतीक का सूचक मानकर जिन की पहचान अरनाथ से की है - शाह, यू०पी० पू०नि०, पृ० ७; स्मिथ, वी० ए०, पू०नि०, पृ० १२-१३ ३ छ: उदाहरणों में 'वर्धमान' का नाम उत्कीर्ण है। एक उदाहरण ( राज्य संग्रहालय, लखनऊ-जे २) में 'महावीर' का नाम भी उत्कीर्ण है । ४ ब्यूहलर, जी०, 'स्पेसिमेन्स ऑव जैन स्कल्पचर्स फ्राम मथुरा, एपि०इण्डि०, खं० २, पू० ३१४-१८ ५ पउमचरिय ३.१२२-२६ ६ श्रीवास्तव, वी० एन० पू०नि०, पृ० ४८-४९ ७ वाजपेयी, के० डी०,‘जैन इमेज ऑव सरस्वती इन दि लखनऊ म्यूजियम', जैन एण्टि ०, खं० ११, अं० २, पृ० १-४ ८ अक्षमाला के केवल आठ मनके सम्प्रति अवशिष्ट हैं । ९ स्मिथ, वी० ए० पू०नि०, पृ० २४, फलक १७, चित्र २ १० अंतगड़दसाओ (अनु० एल० डी० बनेंट), पृ० ६१ और आगे Jain Education International For Private & Personal Use Only ११ स्ट०जे०आ०, पृ० १३ www.jainelibrary.org
SR No.002137
Book TitleJain Pratimavigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMaruti Nandan Prasad Tiwari
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1981
Total Pages370
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Culture
File Size13 MB
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