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राजनीतिक एवं सांस्कृतिक पृष्ठभूमि ]
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मुहम्मद गोरी ने पृथ्वीराज तृतीय एवं जयचन्द को पराजित किया, जिसके साथ ही भारत में हिन्दू शासन समाप्त हो गया । सन् १२०६ ई० में मुसलमानों ने मामलुक वंश की स्थापना की ।
में
विभिन्न क्षेत्रों के शासकों के मध्य निरन्तर चलनेवाले संघर्ष के परिणामस्वरूप गुप्तयुग की शांन्ति एवं व्यवस्था विलुप्त हो गयी । तथापि भारतीय संस्कृति के विभिन्न पक्षों का विकास अबाध गति से चलता रहा, यद्यपि उस विकास का स्वरूप एवं उसकी गति विभिन्न राजवंशों के अन्तर्गत भिन्न रही । मौर्य, कुषाण एवं गुप्त युगों की तुलना में इस युग विभिन्न राजवंशों के अन्तर्गत हुए साहित्य और कला के विकास का महत्व किसी भी प्रकार कम नहीं है। सीमित क्षेत्र में समर्थं शासक का संरक्षण किसी भी धर्म और कला की उन्नति एवं विकास में अधिक सहायक होता है । इसका प्रमाण प्रतिहार, चंदेल और चौलुक्य शासकों के काल में निर्मित जैन मन्दिरों की संख्या एवं प्रतिमाविज्ञान की प्रभूत सामग्री में ffed है । इस युग में ही गुजरात, राजस्थान, मध्यप्रदेश और उत्तर प्रदेश में सर्वाधिक जैन मन्दिरों का निर्माण हुआ और समस्त उत्तर भारत में अनेक जैन कलाकेन्द्र स्थापित हुए जहाँ प्रभूत संख्या में जैन मूर्तियां निर्मित हुईं । फलतः इस काल में प्रतिमाविज्ञान की दृष्टि से विषय की सर्वाधिक विविधता एवं विकास भी दृष्टिगत होता है । उदयगिरि खंडगिरि ( नवमुनि एवं बारभुजी गुफाएं), देवगढ़, मथुरा, ग्वालियर, खजुराहो, ओसिया, दिलवाड़ा (विमलवसही एवं लूणवसही ), कुंभारिया, तारंगा, राजगिर आदि जैन प्रतिमाविज्ञान के अध्ययन की दृष्टि से अतीव महत्व के स्थल हैं ।
प्रतिहार शासक नागभट द्वितीय' और चौलुक्य शासक कुमारपाल के अतिरिक्त अन्य किसी भी शासक के जैन धर्म स्वीकार करने का उल्लेख नहीं प्राप्त होता । पर बौद्ध धर्मावलम्बी पालवंश के अतिरिक्त अन्य सभी राजवंशों का जैन धर्मं एवं कला को किसी न किसी रूप में समर्थन प्राप्त था । जैन देवकुल में राम, कृष्ण, बलराम, गणेश, सरस्वती, चक्रेश्वरी, अष्ट-दिक्पाल एवं नवग्रहों जैसे हिन्दू देवों को विशेष महत्व दिया गया था। जैन धर्म के इस उदार स्वरूप ने निश्चितरूपेण हिन्दू शासकों को जैन धर्म के समर्थन के लिए आकृष्ट किया होगा । जयसिंह सूरि (१४ वीं शती ई०) कृत कुमारपालचरित में उल्लेख है कि जैन आचार्य हेमचन्द्र की सलाह पर ही कुमारपाल ने हेमचन्द्र के साथ सोमनाथ जाकर शिव का पूजन किया था । वहीं शिव ने प्रकट होकर जैन धर्म की प्रशंसा की थी । हेमचन्द्र ने शिव महादेव की प्रशंसा में काव्य रचना भी की थी । गणधरसार्द्धशतक बृहद्वृत्ति के अनुसार एक अच्छे जैन विद्वान् के लिए ब्राह्मण और जैन दोनों ही दर्शनों का पूरा ज्ञान आवश्यक है ।" अहिंसा पर बल देने के साथ ही जैन धर्मं युद्ध विरोधी नहीं था । तमी कुमारपाल, सिद्धराज एवं विमल जैसे शासक उसकी परिधि में आ सके ।
जैन धर्म व्यापारियों एवं व्यवसायियों के मध्य विशेष लोकप्रिय था । सम्भवतः इसके हिन्दू शासकों द्वारा समर्थित होने का यह भी एक कारण था । जैन धर्म में जाति व्यवस्था को धर्म की दृष्टि से महत्व नहीं दिया गया था, और सम्भवत: इसी कारण वैश्यों ने काफी संख्या में जैन धर्म स्वीकार किया था, जिनका मुख्य कार्यं व्यापार या व्यवसाय था । इन वैश्यों को जैन समाज में पूर्ण प्रतिष्ठा प्राप्त थी । दण्डनायक विमल, वास्तुपाल, तेजपाल, पाहिल्ल एवं जगदु को शासन में
१ अय्यंगर, कृष्णस्वामी, 'दि बप्पभट्टि - चरित ऐण्ड दि अर्ली हिस्ट्री ऑव दि गुर्जर एम्पायर,' ज० बां०ब्रां०रा०ए०सी०, खं० ३, अं० १-२, पृ० ११३; पुरी, बी० एन०, दि हिस्ट्री ऑव दि गुर्जर प्रतिहारज, बम्बई, १९५७, पृ०४७-४८
२ जैन स्थिति के ठीक विपरीत स्थिति बौद्धों की थी, जिन्होंने प्रमुख हिन्दू देवताओं को अपने देवकुल में निम्न स्थान दिया : द्रष्टव्य, बनर्जी, जे० एन०, दि डिवलप्मेण्ट ऑव हिन्दू आइकानोग्राफी, कलकत्ता, १९५६, पृ० ५४० और आगे; मट्टाचार्य, बेनायतोश, दि इण्डियन बुद्धिस्ट आइकनोग्राफी, कलकत्ता, १९६८, पृ० १३६, १७३-७४, १८५-८८, २४९-५०
३ कुमारपालचरित ५.५, पृ० २४ और आगे, ७५, पृ० ५७७ और आगे
४ शर्मा, ब्रजेन्द्रनाथ, सोशल ऍण्ड कल्चरल हिस्ट्री ऑव नार्दर्न इण्डिया, दिल्ली, १९७२, पृ० ४६; जै०क०स्था०, ९ख० २, पृ० २५४, पा० टि० २
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