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[ जैन प्रतिमाविज्ञान श्रीरामगुप्त द्वारा उन मूर्तियों के निर्माण कराने का उल्लेख है ।' गुप्त संवत् तिथियों वाली कुछ मूर्तियां चन्द्रगुप्त द्वितीय, कुमारगुप्त प्रथम एवं स्कन्दगुत के समय की हैं । मथुरा से प्राप्त एक मूर्ति लेख (गुप्त सं० ११३ = ४३२ ई.) में श्यामाढ्या नामक स्त्री द्वारा मूर्ति समर्पण अंकित है। उदयगिरि गुफा लेख गुप्त सं० १०६ =४२५ ई०) के अनुसार पाश्र्वनाथ की मूर्ति शंकर नाम के व्यक्ति द्वारा स्थापित की गयी थी। कहोम (गोरखपुर, उ० प्र०) लेख (गुप्त सं० १४१ = ४६० ई०) के अनुसार मति के दानकर्ता मद्र के हृदय में ब्राह्मणों एवं धर्माचार्यों के प्रति विशेष सम्मान था। पहाड़पुर (राजशाही,
देश) से प्राप्त लेख (गुप्त सं० १५९ = ४७८ ई०) में एक ब्राह्मण यगल द्वारा अर्हत् के पूजन एवं वट गोहालि के विहार में विहारगृह बनाने के लिए भूमिदान का उल्लेख है ।"
मथुरा के अतिरिक्त अन्य कई स्थलों से भी गुप्तकालीन जैन मूर्तियों के अवशेष प्राप्त होते हैं। अपने बन्दरगाहों के कारण गुजरात व्यापारियों का प्रमुख कार्य क्षेत्र हो गया था। गुप्त युग में ही ल० पांचवीं शती ई. के मध्य या छठी शती ई० के प्रारम्भ में वलभी में तीसरा और अन्तिम वाचन सम्पन्न हुआ जिसमें सभी उपलब्ध जैन ग्रन्थों को लिपिबद्ध किया गया । अकोटा से रोमन कांस्य पात्र प्राप्त होते हैं, जो उस स्थल के व्यापारिक महत्व का संकेत देते हैं । गुजरात के अकोटा एवं वलभी नामक स्थलों से गुप्तयुगीन जैन मूर्तियां प्राप्त हई हैं। बिहार में राजगिर का विभिन्न स्थलों से सम्बद्ध होने के कारण विशेष व्यापारिक महत्व था। गुप्त युग से निरन्तर बारहवीं शती ई० तक राजगिर (वैभार पहाड़ी और सोनमण्डार गुफा) में जन मूर्तियों का निर्माण होता रहा । मध्यप्रदेश में विदिशा प्राचीन काल से ही व्यापारिक महत्व की नगरी थी। व्यापार की दृष्टि से वाराणसी का भी महत्व था जहां से छठी-सातवीं शती ई० की कुछ जैन मूर्तियां प्राप्त होती हैं।
सातवीं शती ई० के दो गुर्जर शासकों-जयभट्ट प्रथम एवं दद्द द्वितीय ने तीथंकरों से सम्बद्ध वीतराग एवं प्रशान्तराग उपाधियां धारण की थीं। ह्वेनसांग के विवरण से ज्ञात होता है कि सातवीं शती ई० में श्वेताम्बर एवं दिगम्बर सम्प्रदाय के साधु पश्चिम में तक्षशिला एवं पूर्व में विपुल तक और दिगम्बर निर्ग्रन्थ बंगाल में समतट एवं पुण्ड्रवर्धन तक फैले थे। मध्य-युग (ल० ८वीं शती ई० से १२वीं शती ई० तक)
हर्ष के वाद (ल० ६४६ ई०) का युग किन्हीं अर्थों में ह्रास का युग है। किसी केन्द्रीय शक्ति के अभाव में उत्तर भारत के विभिन्न क्षेत्रों में स्वतन्त्र शक्तियां उठ खड़ी हई। कन्नौज पर अधिकार करने के लिए इनमें से प्रमुख, पाल, प्रतिहार और राष्ट्रकूट राजवंशों के मध्य होने वाला त्रिकोणात्मक संघर्ष इस काल की महत्वपूर्ण घटना है। ग्यारहवीं शती ई० का इतिहास अनेक स्वतन्त्र राजवंशों से सम्बद्ध है, जिनमें से अधिकांश ने अपना राजनीतिक जीवन प्रतिहारों के अधीन प्रारम्भ किया था। इनमें राजस्थान में चाहमान, गुजरात में चौलुक्य (सोलंकी) और मालवा में परमार प्रमुख हैं । साथ ही गहड़वाल, चन्देल और कल्चुरि एवं पूर्व में पाल भी महत्वपूर्ण हैं, जिन्होंने नवीं से बारहवीं शती ई० के मध्य शासन किया। इन राजवंशों के शासकों में सत्ता एवं राज्यविस्तार के लिए आपस में निरन्तर संघर्ष होता रहा । अन्त में ११९३ ई० में
१ गाई, जी० एस०, 'थ्री इन्स्क्रिप्शन्स ऑव रामगुप्त', ज०ओ०ई०, खं० १८, अं ३, पृ० २४७-५१; अग्रवाल, आर०
सी०, 'न्यूली डिस्कवर्ड स्कल्पचर्स फाम विदिशा', ज०ओ०ई०, खं० १८, अं० ३, १० २५२-५३ २ एपि०इण्डि०, खं० २, पृ० २१०-११, लेख सं० ३९ ३ का०६०ई०, खं० ३, पृ० २५८-६०, लेख सं६१ ४ वही, पृ० ६५-६८, लेख सं० १५ ...
५ एपि०इण्डि०, खं० २०, पृ०६१ . ६ विण्टरनित्ज, एम०, ए हिस्ट्री ऑव इण्डियन लिरेचर, खं० २, कलकत्ता, १९३३, पृ० ४३२ . . . ७ मैती, एस० के०, पू०नि०, पृ० १२३; जैन, जे० सी०, पू०नि०, पृ० ११५ ८ मोती चन्द्र, पू०नि०, पृ० १७.. ९ घटगे, ए० एम०, 'जैनिज्म', दि क्लासिकल एज, बंबई, १९५४, पृ० ४०५-०६
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