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________________ प्रस्तावना मुख्य ग्रन्थ चतुर्विंशतिका (बप्पभट्टिसूरिकृत), चतुविशति स्तोत्र (शोभनमुनिकृत), निर्वाणकलिका, त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित्र, मंत्राधिराजकल्प, चतुर्विशतिजिन-चरित्र (या पद्मानन्द महाकाव्य), प्रवचनसारोद्धार, आचारदिनकर एवं विविधतीर्थकल्प हैं । दिगम्बर परम्परा के प्रमुख ग्रन्थ हरिवंशपुराण, आदिपुराण, उत्तरपुराण, प्रतिष्ठासारसंग्रह, प्रतिष्ठासारोद्धार और प्रतिष्ठातिलकम् हैं। तीसरे वर्ग में जैनेतर प्रतिमा लाक्षणिक ग्रन्थ हैं। ऐसे ग्रन्थों में हिन्दू देवकुल के सदस्यों के साथ ही जैन देवकुल के सदस्यों की भी लाक्षणिक विशेषताएँ विवेचित हैं। इनमें अपराजितपृच्छा, देवतातिप्रकरण और रूपमण्डन मुख्य हैं। चौथे वर्ग में दक्षिण भारत के जैन ग्रन्थ हैं, जिनका उपयोग तुलनात्मक अध्ययन की दृष्टि से किया गया है। इनमें मानसार और टी० एन० रामचन्द्रन की पुस्तक 'तिरूपरुत्तिकुणरम ऐण्ड इट्स टेम्पल्स' प्रमुख हैं। ग्रन्थ की तीसरी महत्वपूर्ण स्रोत सामग्री पुरातात्विक स्थलों की जैन मूर्तियाँ हैं । पुरातात्विक सामग्री के संकलन हेतु कुछ मुख्य जैन स्थलों की यात्रा एवं वहाँ की मूर्ति सम्पदा का एकैकश : विशद अध्ययन भी किया गया है। ग्रन्थों में निरूपित विवरणों के वस्तुगत परीक्षण की दृष्टि से पुरातात्विक स्थलों की सामग्री का विशेष महत्व है, क्योंकि मूर्त धरोहर कलात्मक एवं मूतिवैज्ञानिक वृत्तियों के स्पट साक्षी होते हैं। अध्ययन की दृष्टि से सामान्यत: ऐसे स्थलों को चुना गया है जहाँ कई शताब्दी की प्रभूत मूर्ति सम्पदा सुरक्षित है। इस चयन में श्वेताम्बर और दिगम्बर दोनों ही सम्प्रदायों के स्थल सम्मिलित हैं। जिन स्थलों की यात्रा की गई है उनमें अधिकांश ऐसे हैं जिनकी मूर्ति सम्पदा का या तो अध्ययन नहीं किया गया है, या फिर कुछ विशेष दृष्टि से किये गये अध्ययन की उपयोगिता प्रस्तुत ग्रन्थ की दृष्टि से सीमित है। इनमें राजस्थान में ओसिया, घाणेराव, सादरी, नाडोल, नाडलाई, जालोर, चन्द्रावती, विमलवसही, लूणवसही, और गुजरात में कुंभारिया एवं तारंगा के श्वेताम्बर स्थल; तथा उत्तरप्रदेश में देवगढ़ एवं राज्य संग्रहालय, लखनऊ और पुरातत्व संग्रहालय, मथुरा (जहाँ मथुरा के कंकाली टोले की जैन मूर्तियाँ सुरक्षित हैं) एवं मध्यप्रदेश में ग्यारसपूर और खुजराहो के दिगम्बर स्थल मुख्य हैं। उत्तर भारत के कुछ प्रमुख पुरातात्विक संग्रहालयों की जैन मूर्तियों का भी विस्तृत अध्ययन किया गया है। उल्लेखनीय है कि जहाँ किसो पुरातात्विक स्थल की सामग्री काल एवं क्षेत्र की दृष्टि से सीमाबद्ध होती है, वहीं संग्रहालय की सामग्री इस प्रकार का सीमा से सर्वथा मुक्त होती है। राज्य संग्रहालय, लखनऊ एवं पुरातत्व संग्रहालय, मथुरा के अतिरिक्त राष्ट्रीय संग्रहालय, दिल्ली, राजपूताना संग्रहालय, अजमेर, भारत कला भवन, वाराणसी एवं पुरातात्विक संग्रहालय, खजुराहो के जैन संग्रहों का भी अध्ययन किया गया है । कल्पसूत्र के चित्रों पर प्रकाशित कुछ सामग्री का भी उपर है। विभिन्न पुरातात्विक स्थलों एवं संग्रहालयों की जैन मूर्तियों के प्रकाशित चित्रों को भी दृष्टिगत किया गया है। साथ ही आकिअलाजिकल सर्वे ऑव इण्डिया, दिल्ली एवं अमेरिकन इन्स्टिट्यूट आंव इण्डियन स्टडीज, वाराणसी के चित्र संग्रहों से भी आवश्यकतानुसार लाभ उठाया गया है। कार्य-प्रणाली ग्रंथ के लेखन में दो दृष्टियों से कार्य किया गया है। प्रथम, सभी प्रकार के साक्ष्यों के समन्वय एवं तुलनात्मक अध्ययन का प्रयास है। यह दृष्टि न केवल साहित्यिक और पुरातात्विक साक्ष्यों के मध्य, वरन् दो साहित्यिक या कला परम्पराओं के मध्य भी अपनायी गयी है। द्वितीय, ग्रन्थों एवं पुरातात्विक स्थलों की सामग्री के स्वतन्त्र अध्ययन में उनका एकशः, विशद और समग्र अध्ययन किया गया है । समूचा अध्ययन क्षेत्र एवं काल के चौखट में प्रतिपादित है। आरम्भिक स्थिति में मूर्त अभिव्यक्ति के विषयवस्तु के प्रतिपादन की दृष्टि से ग्रन्थों का महत्व सोमित था । ग्रन्थों से केवल विषयवस्तु या देवों की धारणा ग्रहण की जाती थी। इस अवस्था में विभिन्न सम्प्रदायों की कला के मध्य क्षेत्र एवं काल के सन्दर्भ में परस्पर आदान-प्रदान हुआ। प्रारम्भिक जैन कला के अध्ययन में विषयवस्तु की पहचान हेतु १ ल्यूजे-डे-ल्यू, जे०ई०वान, पू०नि०, पृ०१५१-५२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002137
Book TitleJain Pratimavigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMaruti Nandan Prasad Tiwari
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1981
Total Pages370
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Culture
File Size13 MB
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